Manu Smriti
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अनन्तरं अरिं विद्यादरिसेविनं एव च ।अरेरनन्तरं मित्रं उदासीनं तयोः परम् ।।7/158

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपने राज्य के सम्मुख का राजा शत्रु और उसका सेवन भी शत्रु है, उस शत्रु राजा से परे के देश का राजा मित्र है तथा मित्र राजा के राज्य से परे के देश का राजा उदासीन है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अपने राज्य के समीपवर्ती राजा को और शत्रु राजा की सेवा - सहायता करने वाले राजा को ‘शत्रु’ ही समझे अरि से भिन्न अर्थात् शत्रु से विपरीत आचरण करने वाले अर्थात् सेवा - सहायता करने वाले राजा को ‘मित्र’ और इन दोनों से भिन्न को जो न सहायता करे न विरोध करे, उसे ‘उदासीन’ राजा समझना चाहिए ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
शत्रु और शत्रु के साथियों को तो पास ही समझना चाहियें। फिर मित्र और फिर उदासीन को ।
 
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