Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दोपहर दिन अथवा आधी रात्रि के समय निश्चिन्त तथा शान्ति से मन्त्रियों के साथ या स्वयं (अकेला) ही कर्म और अर्थ का विचार करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।१४९ - १५१) तीन श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. अन्तर्विरोध - (क) मनु ने ७।१४७ में स्पष्ट निर्देश किया है कि राजा कैसे स्थान पर मन्त्रणा करे, मन्त्रणा का स्थान एकान्त पर्वत का शिखर, जंगल अथवा महल का एकान्त प्रदेश होना चाहिए । जिसमें कोई शलाका - जरोखादि भी न हो । फिर यहां इन श्लोकों में मूर्ख, गूंगे, अन्धे, बहरे, तोता मैनादि पक्षी, वृद्धपुरूष, स्त्री, म्लेछादि को मन्त्रणा के समय दूर करने की बात निरर्थक है । (ख) और विकलांग पुरूष, स्त्री आदि राजा के मन्त्रणा के स्थान पर कैसे पहुंच सकेंगे ? और यदि ऐसे व्यक्ति पहंुच जाते हैं, तो वह एकान्त स्थान नहीं कहा जा सकता । (ग) और ७।१४५ में कहा कि राजा रात्रि के पिछले प्रहर में उठकर और दैनिक कार्य करके मन्त्रियों से मन्त्रणा करे । परन्तु ७।१५१ में आधी रात में मन्त्रणा की बात कही है, यह पूर्वोक्त समय से विरूद्ध है और १५१ श्लोक से भी विरूद्ध है इसमें ‘विश्राम करके मन्त्रणा का समय लिखा है, जो कि सुबह का समय ही हो सकता ।’
२. प्रसंगविरोध - (क) मनु ने मन्त्रणा के स्थान की विशेषतायें १४७ श्लोक में कहीं हैं । यदि मनु को स्थान के विषय में और कोई बात कहनी थी तो वे वही कहते, किन्तु मन्त्रणा की गोपनीयता या फल को (१४८) कहने के बाद फिर मन्त्रणा स्थान की बात कहना प्रसंगविरूद्ध है । (ख) इसी प्रकार मन्त्रणा का समय १४५ श्लोक में कहा है । यदि मन्त्रणा के समय में मनु दूसरा कोई विकल्प देना चाहते तो उसी के बाद देना चाहिये था । अतः यह १५१ श्लोक में कहा मन्त्रणा का समय प्रसंगविरूद्ध है । (ग) और इस १५१वें में कहे मन्त्रणा के समय को आपतकालीन भी नहीं माना जा सकता । क्यों कि आपत्काल का कोई समय निश्चित नहीं किया जा सकता । और ‘विश्रान्तः विगतक्लमः’ आदि इस श्लोक के राजा के विशेषण भी आपत् काल का खण्डन कर रहे हैं । इस प्रकार अन्तर्विरोधों और प्रसंग को भंग करने के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।