Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अर्थ और काम की जिसको इच्छा नहीं है, उसको धर्म और ज्ञान का अधिकार है। जिसको धर्म जानने की इच्छा है, उसको केवल वेद ही प्रमाण है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अर्थकामेषु असक्तानाम् जो पुरूष अर्थ - सुवर्णादि रत्न और काम - स्त्रीसेवनादि में नहीं फंसते हैं धर्मज्ञानं विधीयते उन्हीं को धर्म का ज्ञान होता है धर्मं जिज्ञासमानानाम् जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, वे प्रमाणं परमं श्रुतिः वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें , क्यों कि धर्म - अधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक - ठीक नहीं होता ।
टिप्पणी :
स० प्र० तृतीय समु०)
‘‘परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय - सेवा में फंसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है । जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है ।’’
(स० प्र० दशम समु०)
‘‘धर्मशास्त्र में कहा है कि - अर्थ और काम में जो आसक्त नहीं, उनके लिये धर्मज्ञान का विधान है ।’’
(द० ल० वे० ख० ६)
‘‘जो मनुष्य सांसारिक विषयों में फंसे हुए हैं उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं हो सकता । धर्म के जिज्ञासुओं के लिए परम प्रमाण वेद है ।’’
(पू० प्र० १०५)
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अर्थकामेष्वसक्तानाम्) जो लोग लोभ और काम में फँसे हुये नहीं हैं उन्हीं को (धर्मज्ञानं विधीयते) धर्मज्ञान का बोध होता है। (धर्मजिज्ञासमानानाम्) धर्म जानने की इच्छा करने वालों के लिये (प्रमाणं परमम्) परमं प्रमाण (श्रुतिः) वेद है।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषय के सेवन में फंसे हुए नहीं होते उन्हीं को धर्म का ज्ञान होता है। और जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिए वेद ही परम प्रमाण है।