Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि अधिक प्रीति वश प्रजा से कर नहीं लेता तो राजा अपनी जड़ उखाड़ता है तथा लोभ वश अधिक कर ले तो भी अपनी जड़ उखाड़ता है। अतएव इन दोनों कार्यों को त्याग दें, यदि करेगा तो वह अपने को प्रजा को दुःख करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अतिलोभ से अपने दूसरों के सुख के मूल को उच्छिन्न अर्थात् नष्ट कदापि न करे क्यों कि जो व्यवहार और सुख के मूल का छेदन करता है वह अपने और उन को पीड़ा ही देता है ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु राजा अतिलोभ से अपने और दूसरों के सुख-मूल को कदापि नष्ट न करे। क्योंकि जो (आत्मनः) व्यवहार व सुख के मूल का उच्छेद करता है, वह अपने को और दूसरों को पीड़ा ही देता है।१
टिप्पणी :
इसके आगे व्याख्यारूप में स्वामी जी लिखते हैं ‘‘और, जो कर लेवे वह भी इस प्रकार से लेवे कि जिससे किसान आदि खाने, पीने और धन से रहित होकर दुःख न पावें। क्योंकि प्रजा के धनाढ्यों के आरोग्य-खान-पान आदि से सम्पन्न रहने पर ही राजा की बड़ी उन्नति होती है। प्रजा को अपेन सन्तान के सद्श सुख देवे और प्रजा अपने पिता-सद्श राजा और राजपुरुषों को जाने। यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करेन वाले हैं और राजा उनका रक्षक है। जो प्रजा न हो तो राजा किसका? और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे? दोनों अपने-अपने काम में स्वतन्त्र, और मिले हुए प्रीतियुक्त काम में परतन्त्र रहें।’’