Manu Smriti
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कारुकाञ् शिल्पिनश्चैव शूद्रांस्चात्मोपजीविनः ।एकैकं कारयेत्कर्म मासि मासि महीपतिः ।।7/138
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पाचक (कारुक रसोई बनाने वाले) हर प्रकार के शिल्पी (कारीगर), शूद्र तथा शारीरिक कष्ट द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले (पल्लेदार आदि) इन सबों से प्रत्येक मास में एक दिन का काम करावें, इनका यही कर है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।१३८) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं - अन्तर्विरोध - (क) मनु ने कर - विधान में (७।१२७-१३९ तक श्लोकों में) व्यापारी के उन कर्मों पर कर - निर्धारण किया है, जो लाभ देने वाले हैं । और इन कर्मों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र कर - विधान में आते ही नहीं, फिर शूद्र से कर के रूप में एक - एक मास तक काम कराने की बात ही निरर्थक है । (ख) और कारूक - कारीगरी और शिल्पी - कलाकार के कर्म वैश्य के कर्मों के अन्तर्गत ही आते हैं उनसे शूद्र की आजीविका बताकर कर - विधान करना मनु की मान्यता के विरूद्ध है । (ग) और जो कारीगरी - आदि कर्मों को करता, वह मनु की मान्यता के अनुसार शूद्र ही नहीं है, वह तो वैश्य कहलायेगा । फिर उसे शूद्र कहना जन्म - मूलक मान्यता को मानने वाले व्यक्ति द्वारा मिश्रण करने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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