Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण के विद्याभ्यास तथा आचरण को समझ कर उनकी ऐसी वृत्ति नियत करें जो उनके धर्म विरुद्ध न हो और उनकी रक्षा सब ओर से इस प्रकार करें जैसे पिता, पुत्र की रक्षा करता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
७।१३३ - १३६ तक चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - ये श्लोक पूर्वापर - प्रसंग को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । यहां पूर्वापर श्लोकों में प्रसंग व्यापारियों से किस प्रकार और किन वस्तुओं पर कर लेने का है । ६।१३०-१३२ श्लोकों में विभिन्न वस्तुओं के लाभ पर कर का विधान और कर का प्रकार वर्णन किया है और ७।१३७ श्लोक में भी व्यापारिक से कर लेने की ही बात कही है । इन श्लोकों के बीच में श्रोत्रिय से कर न लेने का वर्णन अप्रासंगिक होने से प्रक्षिप्त है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) मनु ने प्रत्येक वर्ण के कर्मों का निर्धारण किया है । और उनमें कुछ कर्म आजीविका के लिये भी हैं । जैसे ब्राह्मण के लिए पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना आजीविका के कर्म है । किन्तु यहां राजा के द्वारा ब्राह्मण की आजीविका का निर्धारण करना उस मान्यता के विरूद्ध है । (ख) और मनु ने जो कर - निर्धारण किया है (७।१२७ से १३९ तक श्लोकों में) उससे मनु की मान्यता स्पष्ट है कि मनु ने व्यापार करने वाले वैश्य के उन कर्मों पर कर लगाया है, जिनसे लाभ (आमदनी) होती है । इसके अनुसार ब्राह्मण के कर्मों को करने वाले पर कर लगता ही नहीं, फिर निषेधात्मक विधान ही गलत है । यथार्थ मंछ ऐसा प्रतीत होता है कि जब जन्ममूलक वर्णव्यवस्था प्रचलित हो गई और ब्राह्मण जन्म से माने जाने लगे, तब उन्होंने दूसरे खेती आदि करने प्रारम्भ कर दिये । उस समय किसी पक्षपाती व्यक्ति ने इन श्लोकों का मिश्रण करके कर - विधान से श्रोत्रिय (ब्राह्मण) को बचाने का यह दुष्प्रयास किया है ।
३. शैली - विरोध - मनु की शैली में अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णनों एवं अयुक्तियुक्त बातों का अभाव होता है । किन्तु यहां १३४ वें श्लोक में श्रोत्रिय (ब्राह्मण) की भूख से राष्ट्र का नाश अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है और १३६ में राजा की आयु का, धन का तथा राष्ट्र का श्रोत्रिय के धर्म - पालने से बढ़ने की बात युक्तियुक्त न होने से मनुप्रोक्त नहीं हो सकती । अतः इन आधारों के अनुसार ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अस्य) इसकी (श्रुतवृत्ते) विद्या और रूचि को (विदित्वा) जानकर (धम्र्यां वृत्तिम्) धार्मिक जीविका को (प्रकल्पयेत्) लगा दे। (एवम् च) और इसकी (सर्वतः) सब ओर से (संरक्षेत्) रक्षा करे (पिता औरळम् पुत्रम् इव) जैसे पिता निज पुत्र की करता है।