Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. ‘‘राजा जिनको प्रजा की रक्षा का अधिकार देवे वे धार्मिक, सुपरीक्षित विद्वान्, कुलीन हों । उनके आधीन प्रायः शठ और परपदार्थ हरने वाले चोर - डाकुओं को भी नौकर रख के, उनको दुष्टकर्मों से बचाने के लिए राजा के नौकर कर के, उन्हीं रक्षा करने वाले विद्वानों के स्वाधीन करके उनसे इस प्रजा की रक्षा यथावत् करे ।’’
(स० प्र० षष्ठ समु०)
टिप्पणी :
क्यों कि प्रायः राजा के द्वारा प्रजा की सुरक्षा के लिये नियुक्त राज सेवक दूसरों के धन के लालची अर्थात् रिश्वतखोर और ठग या धोखा करने वाले हो जाते हैं ऐसे राजपुरूषों से अपनी प्रजाओं की रक्षा करे अर्थात् ऐसे प्रयत्न करे कि वे प्रजाओं के साथ या राज्य के साथ ऐसा बर्ताव न कर पायें ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा जिन को प्रजा की रक्षा का अधिकार देवे, वे पूर्वोक्त प्रकार से धार्मिक, सुपरीक्षित, विद्वान् और कुलीन हों। उनके आधीन प्रायः शठ और पर-पदार्थ को हरने वाले चोर-डाकुओं को नौकर रखे। एवं, उनको दुष्ट कर्म से बचाने वाले राजा के नौकर करके और उन्हीं रक्षा करने वाले विद्वानों के आधीन रख के, उन से इस प्रजा की रक्षा करे।१
टिप्पणी :
यह ढंग दुष्टों के सुधार का अत्धुत्तम है। खाली रहने से उनके उत्पाद बन्द नहीं हो सकते। मरखने झोटे को कोल्हू में चलाने से वह सीधा हो जाता है। परन्तु उनके अफसर उच्च कोटि के होने चाहिऐं, यह अत्यावश्यक है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(राज्ञ) राजा के (रक्षाधिकृता भृत्या) रक्षण के लिये जो नौकर रक्खे जाते है वे (प्रायेण) प्राय (परस्वादायिन शठा भवन्ति) दूसरो को धोखा देकर खा जानेवाले होते । (तेभ्य इमाः प्रजा रक्षेत) इनसे इस प्रजा को बचाता रहे ।