Manu Smriti
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यानि राजप्रदेयानि प्रत्यहं ग्रामवासिभिः ।अन्नपानेन्धनादीनि ग्रामिकस्तान्यवाप्नुयात् ।।7/118
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नित्य राजा का भाग जैसे अन्न, पान, काष्ठ आदि जो ग्रामवासियों से लेने योग्य है उसको ग्राम का स्वामी लेवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।११८-११९) दोनों श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - ७।११५-११७ श्लोकों में ग्रामाध्यक्षादि की नियुक्ति कही है और ७।१२० में भी वर्णन है । अतः इनकी संगति परस्पर सम्बद्ध है किन्तु इन दोनों श्लोकों में उस क्रम को भंग करके अध्यक्षों की आजीविका का कथन किया गया है । और ७।१२६ में उनके वेतन का विधान करके उनकी आजीविका का भी समाधान किया है । किन्तु यहाँ क्रम - विरूद्ध वर्णन करने से ये श्लोक असंगत हैं । २. अन्तर्विरोध - (क) मनु ने प्रजा से कर लेने का विधान (७।१२७-१३०) श्लोकों में किया है, किन्तु यहां अध्यक्षों द्वारा अपने निर्वाह के लिये पदार्थों के लेने की बात कही है । यह उस व्याख्या से विरूद्ध है । (ख) और यह व्यवस्था अपूर्ण है इन श्लोकों में केवल कुछ अध्यक्षों की आजीविका का कथन किया गया है, अन्य सचिव, दूतादि की आजीविका के विषय में कुछ नहीं कहा गया है । अतः यह अधूरी व्यवस्था मनुप्रोक्त नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने तो (७।१२५-१२६) श्लोकों में सामान्यरूप से राजकर्मचारियों का वेतन निर्धारण किया है । अतः प्रसंगविरूद्धादि दोषों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
ग्रमवासियों से प्रतिदिन जो जो कर राजा को लेना है अर्थात अन्न पान लकडी आदि इन सब को प्रामिक अर्थात गाॅव का हाकिम इकटठा किया करे ।
 
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