Manu Smriti
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मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया ।सोऽचिराद्भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः ।।7/111

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो राजा बिना सोचे विचारे मोहवश प्रजा को कष्ट देता है वह थोड़े ही समय में अपना राज्य, अपने प्राण, भाई बन्धु सब को नष्ट भ्रष्ट कर डालता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है वह राज्य से और बन्धुसहित जीने से पूर्व ही शीघ्र नष्ट - भ्रष्ट हो जाता है । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो राजा मोह से या अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है, वह राज्य से और अपने साथियों सहित जीवन से शीघ्र ही हाथ धो बैठता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(य राजा) जो राजा (स्वराष्टम) अपने राज को (मोहात) अज्ञानवश (अनवेक्षया) बिना देखभाल के (कर्षयति) दुबला होने देता है (स) वह (अचिरात) शीघ्र (राज्यात) राज से (भ्रश्यते) च्युत हो जाता (सबान्धव च) और अपने बन्धुओ के सहित (जीवितात) अपने जीवन से भी ।
 
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