Manu Smriti
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सामादीनां उपायानां चतुर्णां अपि पण्डिताः ।सामदण्डौ प्रशंसन्ति नित्यं राष्ट्राभिवृद्धये ।।7/109
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।१०९) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - (क) ७।१० - १०८ श्लोकों में सामादि उपायों से शत्रु जनों को वश में करने की बात कही है और यही बात ७।११० में कही है । अतः ये श्लोक परस्पर सम्बद्ध हैं । किन्तु यह श्लोक उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । (ख) और सामादि चारों उपायों का अपना - अपना महत्व है । उनमें किसी को श्रेष्ठ कहना या हीन बताना उचित नहीं है किन्तु इस श्लोक में साम - दण्ड की अनावश्यक प्रशंसा की गई है । २. अन्तर्विरोध - मनु ने ७।१०७ - १०८ श्लोकों में सामादि चारों उपायों को काम में लेने के लिये राजा को कहा है । और उनके प्रयोग का क्रम भी बताया है कि दण्ड का प्रयोग सामादि उपायों से सफलता न मिलने पर ही करे । इससे स्पष्ट है कि मनु के मत में इन सभी का अपना - अपना महत्व है किन्तु १०९ श्लोक में साम तथा दण्ड की प्रशंसा परस्पर विरोध को प्रकट करती है । अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु, राजनीति के पण्डित लोग सामादि चारों उपायों में से केवल साम और दण्ड, इन दो उपायों को ही राष्ट्र-बृद्धि के लिए अतिश्रेष्ठ समझते हैं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(पण्डिता) बुद्धिमान लोग (सामादीनां चतुर्णाम उपायानाम अपि) साम दाम भेद दण्ड इन चार उपायो मे (सामदण्डौ अशंसन्ति) साम और दण्ड को अच्छ समझते है (नित्यम राष्ट अभिवृद्धये) सदा राजा की उन्नति के लिये
 
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