Manu Smriti
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नास्य छिद्रं परो विद्याद्विद्याच्छिद्रं परस्य च ।गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरं आत्मनः ।।7/105

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
कोई शत्रु अपने छिद्र अर्थात् निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रखे । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा ऐसा यत्न करे कि उसकी निर्बलता को तो कोई शत्रु जान न सके, परन्तु आप उसकी निर्बलता को जानता रहे। जैसे, कछुआ अपने अंगों को छिपाए रखता है, इसी प्रकार राजा अपने राज्याङ्गों को गुप्त रखे और अपनी निर्बलता को छिपाए रखे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अस्य) राजा की (छिद्रम) निर्बलताओं को (परः) शत्रु (न विघात) न जान पावे (परस्य छिद्रम तु विघात) शत्रु के दोषो को यह जानता रहे । (कूर्म इव) कछुवे के समान (अंगानि गृहेत) अपने अंग छिपाये रहे । (आत्मनः विवरम) अपने छिद्र की (रक्षेत) रक्षा करता रहे ।
 
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