Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अलघ वस्तु की प्राप्ति की इच्छा करें, जो दण्ड द्वारा प्राप्त हो उसकी रक्षा करें, जिस वस्तु की रक्षा देखने मात्र से होती है उसकी उन्नति देखने से करें, ब्याज से बढ़े हुये धनादि को दान में लगावें।
टिप्पणी :
विद्योन्नति, अनाथरक्षा, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ सन्यासी आदि की सहायता में व्यय करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. दण्ड से अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा नित्य देखने से प्राप्त की रक्षा रक्षित की वृद्धि अर्थात् ब्याजादि से बढ़ावे और बढ़े हुए धन को पूर्वोक्त (९९) मार्ग में नित्य व्यय करे ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
टिप्पणी :
अर्थात् सुपात्रों एवं योग्य कर्मों में व्यय करे ।
‘‘राजाधिराजपुरूष अलब्ध राज्य की प्राप्ति की इच्छा दण्ड से, और प्राप्त राज्य की रक्षा देखभाल करके, रक्षित राज्य और धन को व्यापार और ब्याज से बढ़ा और सुपात्रों के द्वारा सत्यविद्या और सत्यधर्म के प्रचार आदि उत्तम व्यवहारों में बढ़े हुए धन आदि पदार्थों का व्यय करके सबकी उन्नति सदा किया करें ।’’
(स० वि० गृहाश्रम प्र०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा दण्ड से अप्राप्त पदार्थ की प्राप्ति की इच्छा करे, नित्य देख-भाल से प्राप्त पदार्थ की रक्षा करे, वाणिज्य व्यवसायादि से रक्षित पदार्थ को बढ़ावे, और बढ़े हुए धन को सुपात्रों में पूर्वोक्त प्रकार से व्यय करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अलब्धम इच्छेत दण्डेन) जो प्राप्त नही है उसको पा्र्रप्त नही है उसको प्राप्त करने की इच्छा दण्ड से करे (लब्ध रक्षेत अवेक्ष्या) जो प्राप्त है उसकी देखभाल करके रक्षा करे । (रक्षितम वधैयेत वृद्धया) जो सुरक्षित है उसको व्यापार आदि वृद्धि के साधनों द्वारा बढावे । (वृद्धम पात्रेषु निः क्षिपेत) बढे हुए धन को सुपात्रों को दे देवे ।