Manu Smriti
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न कूटैरायुधैर्हन्याद्युध्यमानो रणे रिपून् ।न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततेजनैः ।।7/90
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।९०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - यहां राजा के युद्धकालीन धर्मों का वर्णन किया गया है । और प्रसंग यहां यह है कि युद्ध में किन - किन व्यक्तियों को नहीं मारना चाहिये । उस प्रसंग में किन हथियारों से मारने की बात अप्रासंगिक है । २. अन्तर्विरोध - मनु ने राजा का यह परमधर्म माना है कि शत्रु को किसी भी प्रकार से (७।१४३) वश में करे और प्रजा का पालन करे । और ७।१४३ में वह राजा मरे हुए की तरह होता है जिसके राज्य में प्रजा दस्यु या शत्रु से पीडि़त होती है । फिर राजा के लिये यह कहना कि ऐसे हथियारों से शत्रुओं से युद्ध न करे, यह कथन परस्पर विरोधी और अुयक्तियुक्त ही है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा का धर्म है कि वह युद्ध करता हुआ युद्ध में शत्रुओं को न कूट शास्त्रों से, न निकलने में कठिन कर्णि-शस्त्रास्त्रों से, और न प्रदीप्ताग्नियुक्त तेज शस्त्रास्त्रों से मारे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(रणे युद्धमानः) रण में युद्ध करने वाला (रिपून्) शत्रुओं को (कूटैः आयुधैः न हन्यात्) गुप्त और अज्ञात् हथियारों से न मारें। (न कर्णिभिः) न ऐसे बाणों से जो शरीर से निकल न सकें,(न अपि दिग्धैः) न विष से बुझे हुऔं से (न अग्निज्वलित् तेजनैः) न उनसे जिनमें अग्नि जल रही हो।
 
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