Manu Smriti
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आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः ।युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः ।।7/89

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो संग्रामों में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग जितना अपना सामथ्र्य हो बिना डरे, पीठ न दिखा युद्ध करते हैं वे सुख को प्राप्त होते हैं । इससे विमुख कभी न हो किन्तु कभी - कभी शत्रु को जीतने के लिए उनके सामने छिप जाना उचित है । क्यों कि, जिस प्रकार से शत्रु को जीत सके वैसे काम करें । जैसे सिंह क्रोधाग्नि में सामने आकर शस्त्राग्नि में शीघ्र भस्म हो जाता है, वैसे मूर्खता से नष्ट - भ्रष्ट न हो जावें । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जो संग्रमों में एक दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग अपनी पूरी शक्ति लगा कर, युद्ध में पीठ न दिखाते हुए युद्ध करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं१
टिप्पणी :
१. नीति के अनुसार छिप जाना, पीठ दिखाना नहीं, इस को दर्शाने के लिये स्वामी जी लिखते हैं-‘‘किन्तु कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिये उनके सामने से छिप जाना उचित है। क्योंकि जिस प्रकार शत्रु को जीत सकें, वैसा काम करें। जैसे सिंह क्रोध से सामने आकर शस्त्राग्नि में शीघ्र भस्म हो जाता है, वैसे मूर्खता से नष्ट-भ्रष्ट न हो जावें।’’
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(आहवेषु) युद्धो में (मिथः) परस्पर (अन्योन्यम्) एक दूसरे को (जिघांसन्तः) मार डालने की इच्छा करने वाले (महीक्षितः) राजा लोग (परम् शक्त या युध्यमानाः) बहुत बलपूर्वक लड़ते हुए (अपराड् मुखाः) कभी पीठ न दिखाने वाले (स्वर्गम् यान्ति) परमगति को प्राप्त होते है।
 
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