Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(७।८८) यह श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
१. प्रसंग - विरोध - यह श्लोक पूर्वापर श्लोकों के प्रसंग को भंग करने से प्रक्षिप्त है । ७।८७ श्लोक में राजा को संग्राम से निवृत्त न होने का कथन है और ७।८९ श्लोक में उसी का अर्थवाद है । इनके माध्यम में राजा के श्रेयस्कर कर्मों का परिगणन करना क्रम को भंग कर रहा है । और संग्राम से निवृत्त न होने की बात ८७ में कहने पर भी फिर यहां कहना पुनरूक्त है । अतः प्रसंगविरूद्ध होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
२. अन्तर्विरोध - इस श्लोक में ब्राह्मणों की सेवा करना राजा का श्रेयस्करकर्म बताया है किन्तु मनु ने प्रजा की रक्षा करना (७।१४४ में) राजा का मुख्य कर्म माना है । ब्राह्मणों की सेवा करना मनु ने क्षत्रिय के लिये कोई अतिरिक्त कर्म नहीं माना है । और विद्वान् स्नातक का सत्कार ७।८२ में और विद्वानों को भोग्य वस्तुएँ और धन देने की बात ७।७९ में कथन की जा चुकी है । अतः इनसे भिन्न ब्राह्मणों की सेवा और क्या हो सकती है ? अतः किसी जन्मजात ब्राह्मण वर्ण को मानने वाले व्यक्ति ने इस श्लोक का मिश्रण किया है । मनु - सदृश आप्तपुरूष ऐसी पक्षपातपूर्ण बातों का कदापि कथन नहीं कर सकते । अतः प्रसंगविरूद्ध और अन्तर्विरोध के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्योंकि युद्धों में पीछे न हटना, प्रजाओं का पालन करना, और वेदप्रचारक वेदज्ञ विद्वानों का सत्कार करना, राजाओं के लिए परम कल्याणकारी है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
वह तीन चीजें राजों के लिये बहुत श्रेयस्कर (कल्याण करने वाली) है:- (1) युद्ध से न भागना। (2) प्रजा का पालन । (3) विद्धानों का सत्कार।