Manu Smriti
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समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन्प्रजाः ।न निवर्तेत संग्रामात्क्षात्रं धर्मं अनुस्मरन् ।।7/87

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. सदा जो राजाओं को वेद - प्रचाररूप अक्षय कोश है इसके प्रचार के लिए कोई यथावत् ब्रह्मचर्य से वेदादि शास्त्रों को पढ़कर गुरूकुल से आवे, उसका सत्कार, राजा और सभा यथावत् करें तथा उनका भी जिनके पढ़ाये हुए विद्वान् होवें । इस बात के करने से राज्य में विद्या की उन्नति होकर अत्यन्त उन्नति होती है । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जब कभी प्रजा का पालन करने वाले राजा को कोई सम-बल, अधिक-बल या हीन-बल शत्रु संग्राम के लिये ललकारे, तब राजा को चाहिये कि वह क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करता हुआ संग्राम से कभी पीछे न हटे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सम+ उत्तम+ अधमैः आहूतः तु राजा) यदि राजा को कोई लड़ने के लिये बुलावे (चेलैंज करे) तो चाहे वह बराबर का हो, चाहे बडा, चाहे छोटा, (सग्रामात् न निवर्तेत) युद्ध से न हटे। (प्रजाः पालयन् क्षात्रम् धर्मम् अनुस्मरन् च) प्रजा का पालन करता हुआ और क्षात्रधर्म पर ध्यान रखता हुआ।
 
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