Manu Smriti
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न तं स्तेना न चामित्रा हरन्ति न च नश्यति ।तस्माद्राज्ञा निधातव्यो ब्राह्मणेष्वक्षयो निधिः ।।7/83
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो धन व सामग्री ब्राह्मण को दी जाती है वह प्रक्षय है, उसको चोर चुरा नहीं सकता। अतएव राजा अपने धन से ऐसे ब्राह्मणों की सेवा शुश्रुषा तथा पूजा करे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
८३ - ८६ तक चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - (क) ८२ वें श्लोक में कहा है कि राजा का यह परम कत्र्तव्य है कि वह गुरूकुल से पढ़कर आये विद्वान् स्नातकों का सत्कार करे । यहां दान का कोई प्रसंग नहीं है । किन्तु यहां उसके बाद के श्लोकों में ब्राह्मणों के लिये दान देने और उनकी महिमा का वर्णन असंगत किया गया है । (ख) और मनु ने ब्राह्मणों को दान की बात ७९ वें श्लोक में कही है । यदि उन्हें और कुछ इनके विषय में कहना था तो वही कहते । क्यों कि मनु की यह शैली है कि वे एक प्रसंग की बात एक स्थान पर ही पूर्ण कर देते हैं । एक प्रसंग के समाप्त होने पर पुनः यहां प्रारम्भ करना असंगत ही है । २. अन्तर्विरोध - (क) ८३-८४ श्लोकों में अग्निहोत्र से भी अधिक ब्राह्मणों को दान देने की बात कही है । यह मान्यता मनु के विरूद्ध है । क्यों कि मनु के मत में अग्निहोत्र सब से श्रेष्ठ कार्य है । इस विषय में मनु के कुछ उद्धरण देखिये - १. महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ।। (मनु० २।२८) अर्थात् यज्ञों के करने से मानव - शरीर ब्राह्मण बनता है अथवा ब्रह्म - प्राप्ति के योग्य बनता है । यज्ञ करने से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है और ब्राह्मण के कार्यों में यज्ञ करना - कराना मुख्य कर्म है, अतः यज्ञ करना दान देने से भी मुख्य है । २. मनु ने २।१४६ में ब्रह्मजन्म को शारीरिक जन्म से श्रेष्ठ माना है । और ब्रह्मजन्म यज्ञों और विद्या से मिलता है । और यज्ञ करने से उत्तम - फल मनु ने माना है । अतः ब्राह्मण को दान देने से यज्ञ करना श्रेष्ठतम है । ३. २।६९ में यज्ञ कर्म की शिक्षा प्रथम करने, २।१७५ में यज्ञक्रम में अवकाश का निषेध करने, २।१०८ में अग्निहोत्र की द्विजमात्र का कत्र्तव्य, २।१८६ में अग्निहोत्र को प्रातः सांय करने का विधान, ३।७१ से ७६ तक अग्निहोत्र कर्म की अपरिहार्यता, ४।२१ - २५ में यज्ञ को आवश्यक कर्म बताना आदि मनु के प्रवचनों से यज्ञकर्म की विशिष्टता सिद्ध होती है । (ख) ७।८५-८६ श्लोकों में दान लेने के पात्रों का वर्णन किया गया है । जिसमें अब्राह्मण से भिन्न वर्ण वालों को भी दान देने की बात कही है, जो कि मनु की मान्यता से विरूद्ध है । मनु ब्राह्मण से भिन्न वर्णों के कर्मों में दान देना ही माना है, लेना नहीं । (ग) और ८५वें श्लोक में ब्राह्मणब्रुव - जन्ममात्र के ब्राह्मण को दान देने से दुगुर्ण फल की बात भी मनु के विरूद्ध है । क्यों कि ब्राह्मणादि वर्णों का आधार मनु ने कर्म को माना है, जन्म को नहीं । ३. शैलीविरूद्ध - और वेद के विद्वान् ब्राह्मण को दान देने से अनन्त फल की बात भी अयुक्ति - युक्त होने से मनुप्रोक्त नहीं हो सकती । क्यों कि मनु के कर्मानुसार ही फल की व्यवस्था मानी है । अतः सान्त कर्मों का फल अनन्त कैसे हो सकता है ? ऐसी अतिशयोक्तिपूर्ण बातें मनु की कदापि नहीं हो सकतीं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
उस वेदप्रचार-निधि को न चोर चुरा सकते हैं, न शत्रु हरण कर सकते हैं, और न कभी वह नष्ट हो सकती है। अतः, राजा को चाहिये कि वह इस अक्षय निधि को वेदप्रचारक वेदवेत्ता विद्वानों में, उन्हें सहायता-सत्कार प्रदान करता हुआ, स्थापित करे। (स० स० ३ का अन्त)
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इस धन को न चोर सकते है न अमित शत्रु नष्ट कर सकते है । इसिलिये राजा को चाहिये कि ब्राहरोषु विद्वानो में अक्षय निधि इस विधा रूपी धन को निधातत्व्य रक्खे । जैसे धन की रक्षा के लिये एक धर होता है । ऐसे ही विघा की रक्षा के लिये एक घर होता है। ऐसे ही विद्या की रक्षा के लिये विद्वान् घर है।
 
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