Manu Smriti
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यथा दुर्गाश्रितानेतान्नोपहिंसन्ति शत्रवः ।तथारयो न हिंसन्ति नृपं दुर्गसमाश्रितम् ।।7/73
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस प्रकार हिरन आदि अपने कोट में बसने से शत्रुओं से कष्ट नहीं पाते हैं, उसी प्रकार राजा दुर्ग में बसने से शत्रुओं से पीड़ा नहीं पाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(७।७२-७३) ये दोनों श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरूद्ध - ७०वें श्लोक में राजा के निवास के लिये विभिन्न दुर्गों का कथन किया गया है । और सभी प्रकार के दुर्गों में गिरिदुर्ग को ७।७१ में सर्वश्रेष्ठ माना है और दुर्ग का महत्व ७।७४ में बताया है । इनके बीच में ये दोनों श्लोक पूर्वापर क्रम को भंग कर रहे हैं । क्यों कि इनमें कहा है कि मनुष्यों के लिये केवल नृदुर्ग ही है अन्य दुर्ग तो अप्रासंगिक मृग, मूषकादि, मगरमच्छ, वानर देवों के लिये हैं । और ७१ श्लोक में गिरिदुर्ग का ही वर्णन है, इसके बाद ७२वें में ‘त्रीण्याद्यानि०’ इत्यादि बातें प्रसंग को भंग कर रही हैं । यदि वह ७०वें श्लोक के बाद होता, तब तो प्रसंग तो नहीं टूटता किन्तु पूर्वापर - विरोध अवश्य रहता । २. अन्तर्विरोध - (क) ७०वें श्लोक में राजा को निर्देश दिया गया है कि वह निवास के लिये कितने प्रकार के दुर्ग बनावे । किन्तु ७२वें में कहा है कि केवल मनुष्य या राजा के लिये नृदुर्ग ही है । अतः पहले कथन से यहाँ विरूद्ध बात कही है । (ख) और ७१ वें श्लोक में राजा के लिये गिरिदुर्ग सब से उत्तम माना है, परन्तु ७२वें में कहा है कि गिरिदुर्ग तो देवों के लिये है, जिन्हें मनुष्यों से भिन्न माना है । (ग) और मनु के इस शास्त्र में सात्त्विकादिगुणों तथा विद्या के कारण देव, पिता, ऋषि, गन्धर्व आदि मनुष्यों के ही भेद माने हैं, किन्तु इसमें (७।७२) में मनुष्यों से भिन्न देव एक जातिविशेष मानी है जो कि पौराणिककल्पना होने से मनु की मान्यता कदापि नहीं है । ३. परस्पर - विरोध - (क) इन दोनों श्लोकों में परस्पर - विरूद्ध बातें भी कहीं हैं । ७१वें में कहा है कि विभिन्न दुर्गों में से मनुष्यों के लिये केवल नृदुर्ग है । और ७२वें में कहा है कि इन दुर्गों में रहने वाले राजा को शत्रु मार नहीं सकते । यहाँ बहुवचन परक बात पूर्वोक्त बात का विरोध कर रही है । (ख) और ७०वें श्लोक में जिन दुर्गों का वर्णन है, उनको न समझकर ९२वें में अयुक्तियुक्त बातों का भी कथन किया गया है । जैसे - दुर्गों में एक दुर्ग है वाक्र्ष - दुर्ग - जो वृक्षों के समूह से घिरा हुआ हो । ऐसा दुर्ग वानर तो नहीं बना सकते, वानर तो वृक्ष पर रहते हैं, जो कि वानरों का बनाया हुआ नहीं, प्रत्युत प्राकृतिक ही होता है । इसी प्रकार जल से घिरे हुए दुर्ग को अब्दुर्ग लिखा है । किन्तु यहां जलाशय को ही दुर्ग मानकर मगरमच्छादि के लिये लिखा है । इसी प्रकार महीदुर्गादि के विषय में भी अन्यथा समझकर ही कथन किया गया है । अतः ये श्लोक प्रसंगविरूद्ध, अन्तर्विरूद्ध, परस्परविरूद्ध और अयुक्तियुक्तवर्णन करने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
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