Manu Smriti
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निर्वर्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः ।तावतोऽतन्द्रितान्दक्षान्प्रकुर्वीत विचक्षणान् ।।7/61
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जितने मनुष्यों से कार्य सम्पादन हो सके उतने ही मनुष्यों को नौकर रक्खें, परन्तु वह मनुष्य चतुर, कार्य-कुशल तत्पर तथा दक्ष होवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(७।६१) यह श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है - १. प्रसंग - विरूद्ध - ७।६२ श्लोक में ‘तेषामर्थे नियुज्जीत’ कहने से स्पष्ट है कि इसका संबन्ध ७।६० में कहे मन्त्रियों से है । क्यों कि इसमें मन्त्रियों के सहायक व्यक्तियों के गुणों का वर्णन किया गया है । ६१वां श्लोक उस पूर्वापर क्रम को भंग करने से प्रक्षिप्त है । २. पुनरूक्त - इस श्लोक में पुनरूक्ति या पिष्ट - पेषण भी हुआ है । क्यों कि ७।६२ में मन्त्रियों के सहायकों के दक्षतादि अनेक गुण बताये ही हैं फिर इस ६१ श्लोक में दक्षान् विशेषण क्यों दिया है । ऐसी पुनरूक्तियाँ मनुप्रोक्त कदापि नहीं हो सकतीं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
और जितने मनुष्यों से इस राज्य के सब काम सम्पन्न हों, उतने आलस्यरहित, अतिचतुर और प्रवीण अधिकारी अमात्य नियुक्त करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यावद्धिः नृभिः) जितने आदमियों से (अस्य इति कर्तव्यता निर्वर्तेत) राज का काम चल सके (तावतः) उतने (अतन्द्रितान्) चुस्त, (दक्षान्) चतुर, (विचक्षणान्) बुद्धिमान् पुरूषों को (प्रकुर्वीत) रख लें।
 
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