Manu Smriti
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तेषु सम्यग्वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम् ।यथा संकल्पितांश्चेह सर्वान्कामान्समश्नुते । 2/5

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि इच्छा रहित कोई कार्य करे तो मुक्ति प्राप्त हो और सांसारिक इच्छा की भी पूर्ति होवे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. तेषु उन वेदोक्त कर्मों में सम्यक् वर्तमानः अच्छी प्रकार संलग्न व्यक्ति अमरलोकतां गच्छति मोक्ष को प्राप्त करता है च और यथा संकल्पितान् सर्वान् एव कामान् संकल्प की गई सभी कामनाओं को समश्नुते भलीभांति प्राप्त करता है ।
टिप्पणी :
वूलरादि पाश्चात्य - विद्वानों तथा टीकाकारों का अन्यथा व्याख्यान १. वूलरादि पाश्चात्य विद्वानों ने १।१२१ से १२४ तक (२।२ से २।५ तक) चार श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है । इस विषय में उनकी युक्ति यह है कि यहां सकामता और निष्कामता का कोई प्रसंग नहीं है । परन्तु उनका यह कथन अविवेकपूर्ण तथा असंगत है । क्यों कि मनु ने धर्म के विषय में वेद को सर्वाधिक प्रमाण माना है और मनु ने उसी का संकेत १।१२० श्लोक में यह कहकर दिया है कि विद्वानों ने जिस वेदोक्त धर्म को हृदय से स्वीकार किया है, उसे जानो । किन्तु वेदोक्त - धर्म को जानने की (१।१२१ में) कामना अवश्यक करनी पड़ेगी, बिना कामना के अथवा संकल्प के (१।१२२ में) यज्ञ, व्रत, यम, नियम आदि सार्वभौम शाश्वत धर्मों की सिद्धि - कदापि नहीं हो सकती । मनुष्य जो भी धर्माचरणादि कोई कर्म करता है, वह (१।१२३) बिना कामना के नहीं होती । उन काम्य व्रत, यम, नियमादि धर्मों में वत्र्तमान रहता हुआ (१।१२४) मनुष्य अमरलोक - मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । वेदोक्त धर्म की ही कामना क्यों की जाये ? इसका उत्तर १।१२५ श्लोक में ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ कहकर दिया गया है । अतः यह समस्त प्रकरण परस्पर शृंखला से सुसम्बद्ध तथा संगत है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तेषु सम्यक् वर्तमानः) शुभ कर्मों में ठीक रीति से लगा हुआ (गच्छति अमर लोकताम्) मुक्ति को प्राप्त होता है। (यथा संकल्पितान् च इह सर्वान् कामान् सम-अश्नुते) जैसे जैसे संकल्प करता है यहाँ वैसी वैसी सब कामनाओं को सिद्ध करता है।
 
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