Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सचिवगण (मन्त्रिमण्डल) जो मन्त्रणा (सलाह) दे उसको पृथक पृथक अथवा एक ही बार समझ कर उचित आज्ञा देवें जिसमें भला हो।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
७।५७ - ५९ तक तीन श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - ये तीनों श्लोक पूर्वापर प्रसंग को भंग करने से प्रक्षिप्त हैं । ७।५४ - ५६ श्लोकों में मन्त्रियों की नियुक्ति और उनके साथ मन्त्रणा करने की बात कही है । और उसी से सम्बद्ध बात ७।६० में भी कही है । किन्तु इस प्रसंग के मध्य में किसी विशिष्ट ब्राह्मण के साथ मन्त्रणा की बात (जो कि मन्त्री नहीं है) उस पूर्वापर क्रम से भंग कर रही है । और ७।५४ में सात या आठ मन्त्रियों की नियुक्ति की बात कही है । उनसे मन्त्रणा न करके ब्राह्मण से मन्त्रणा की बात किसी जन्ममूलक वर्णव्यवस्था के पक्षपाती ने मिलाई है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) ७।५६ में मन्त्रियों के साथ सन्धि, विग्रह आदि के विषय में मन्त्रणा करने की बात कही है । और ७।६५ में राज्य के भिन्न - भिन्न कार्यों का वितरण करके कार्य करने की व्यवस्था है । किन्तु यहाँ ७।५९ में एक ब्राह्मण पर सब राज्यभार सौंप देना और उसी की सलाह से कार्य करने की बात कही है । अतः उससे इसका विरोध है ।
(ख) और ७।१४१ श्लोक में रूग्णादि की दशा में प्रधान मंत्री को ही अपने स्थान पर राजा बनाये, ऐसा कहा गया है । किन्तु यहाँ स्वस्थ दशा में भी प्रतिदिन एक ब्राह्मण पर समस्त राज्य - भार सौंपने की बात परस्पर विरूद्ध है ।
(ग) ७।१४६ श्लोक में मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा और ७।५६ में षाड्गुण्य - सन्धि आदि के विषय में मन्त्रणा करने की बात मन्त्रियों के साथ कही है । किन्तु यहाँ ७।५८ में एक ब्राह्मण के साथ कही है, अतः परस्पर विरोध है ।
(ड) ७।५७वां श्लोक ७।५८-५९ श्लोकों की भूमिका के रूप में लिखा है । इसमें कोई विरोधी बात नहीं कही है, पुनरपि अगले दोनों श्लोकों से सम्बद्ध होने से पूर्वापर को भंग कर रहा है । यदि यह श्लोक ७।६० के बाद में होता तो प्रसंग में बाधा भी नहीं आती । किन्तु यहाँ क्रम को भंग करने से प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
राजा उन मंत्रियों का, अलग-अलग और फिर सबों का इकट्ठा, विचार जानकर उन कामों में से स्वराष्ट्र-हितकारी काम को करे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तेषाम् कार्येषु स्वम् स्वम् अभिप्रायम् पृथक्-पृथक् उपलभ्व) कामों में इनके अपने -अपने अभिप्राय को अलग- अलग जानकर (समस्ताना च) और इनके संयुक्त विचार को जानकर (आत्मनः हितम् विद्ध्यात्) अपना हित करें।