Manu Smriti
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अकामस्य क्रिया का चिद्दृश्यते नेह कर्हि चित् ।यद्यद्धि कुरुते किं चित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् 2/4

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं होता। जो कुछ होता है, सब इच्छा ही से होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
हि क्यों कि यत् यत् किंचित् कुरूते जो - जो हस्त, पाद, नेत्र, मन आदि चलाये जाते हैं (तत्तत् कामस्य चेष्टितम्) वे सब कामना ही से चलते हैं । अकामस्य जो इच्छा न हो तो काचिद्क्रिया आंख का खोलना और मींचना भी न दृश्यते नहीं हो सकता । (स० प्र० दशम समु०) इह इस संसार में कर्हिचित् कभी भी । ‘‘मनुष्यों को निश्चय करना चाहिये कि निष्काम पुरूष में नेत्र का संकोच, विकास का होना भी सर्वथा असम्भव है । इससे यह सिद्ध होता है कि जो - जो कुछ भी करता है वह - वह चेष्टा कामना के बिना नहीं है ।’’ (स० प्र० तृतीय समु०)
टिप्पणी :
वूलरादि पाश्चात्य - विद्वानों तथा टीकाकारों का अन्यथा व्याख्यान १. वूलरादि पाश्चात्य विद्वानों ने १।१२१ से १२४ तक (२।२ से २।५ तक) चार श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है । इस विषय में उनकी युक्ति यह है कि यहां सकामता और निष्कामता का कोई प्रसंग नहीं है । परन्तु उनका यह कथन अविवेकपूर्ण तथा असंगत है । क्यों कि मनु ने धर्म के विषय में वेद को सर्वाधिक प्रमाण माना है और मनु ने उसी का संकेत १।१२० श्लोक में यह कहकर दिया है कि विद्वानों ने जिस वेदोक्त धर्म को हृदय से स्वीकार किया है, उसे जानो । किन्तु वेदोक्त - धर्म को जानने की (१।१२१ में) कामना अवश्यक करनी पड़ेगी, बिना कामना के अथवा संकल्प के (१।१२२ में) यज्ञ, व्रत, यम, नियम आदि सार्वभौम शाश्वत धर्मों की सिद्धि - कदापि नहीं हो सकती । मनुष्य जो भी धर्माचरणादि कोई कर्म करता है, वह (१।१२३) बिना कामना के नहीं होती । उन काम्य व्रत, यम, नियमादि धर्मों में वत्र्तमान रहता हुआ (१।१२४) मनुष्य अमरलोक - मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । वेदोक्त धर्म की ही कामना क्यों की जाये ? इसका उत्तर १।१२५ श्लोक में ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ कहकर दिया गया है । अतः यह समस्त प्रकरण परस्पर शृंखला से सुसम्बद्ध तथा संगत है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अकामस्य) इच्छा-शून्य मनुष्य की (क्रिया काचिद्) कोई क्रिया भी (दृश्यते न इह कर्हिचित्) इस संसार में कभी नहीं देखी जाती है। (यद् यद् हि कुरुते किंचित्) जो कुछ कर्म करता है (तत् तत् कामस्य चेष्टितम्) इच्छा की ही चेष्टा द्वारा होता है। इच्छा-शून्य मनुष्य कुछ नहीं कर सकता। मनुष्य जो कुछ करता है सदा इच्छा से ही प्रेरित होकर करता है।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इस संसार में कामना रहित मनुष्य की कभी कोई क्रिया नहीं देखी जाती; क्योंकि मनुष्य जो जो कर्म करता है (जैसे लेना, चलना, आँख का खोलना और मीचना आदि) वह वह इच्छा का किया हुआ है।
 
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