Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उपारोक्त त्याग योग्य दोषों का मूल लोभ है अर्थात् लोभ करने में इनकी उत्पत्ति होती है। अतएव लोभ का यत्न करके परित्याग कर देना उचित है। निर्लोभी होने से सब वश में हो जाते हैं, यह बात बुद्धिमानों ने कही है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
और जो इस कामज और क्रोधज अठारह दोषों के मूल जिस लोभ को सब विद्वान् लोग जानते हैं उसको प्रयत्न से राजा जीते, क्यों कि लोभ ही से पूर्वोक्त अठारह और अन्य दोष भी बहुत से होते हैं ।
(स० वि० गृहाश्रम प्र०)
टिप्पणी :
‘‘जो सब विद्वान् लोग कामज और क्रोधजों का मूल जानते हैं कि जिससे ये सब दुर्गुण मनुष्य को प्राप्त होते हैं उस लोभ को प्रयत्न से छोड़ें ।’’
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
विद्वान् लोगों ने इन दोनों प्रकार के दुर्व्यसनों का मूल लोभ बतलाया है। अतः, राजा को चाहिए कि वह उस लोभ को प्रयत्न से जीते, क्योंकि इसी से उपर्युक्त दोनों प्रकार के दुर्व्यसन उत्पन्न होते हैं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यम् लोभम्) जिस लोभ को (सर्वे कवयः) सब विद्वानों ने (एतयोः द्वयोः मूलं विदुः) इन दोनों प्रकार के 18 दोषों का मूल बताया है (तम् यत्नेन जयेत्) उसको यत्र से जीते। (तत्+जौ एतौ उभी गणौ) और उससे उत्पन्न होने वाले इन दोनों व्यसन-समूहों कों।
दस दोष काम से उत्पन्न होते है और आठ क्रोध से। और काम और क्रोध लोभ से उत्पन्न होते हैं। इसलिये काम, का्रेध, लोभ तथा उनसे उत्पन्न होने वाले अवगुणों को त्याग दे।