Manu Smriti
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कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः ।वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु ।।7/46

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कामा द्वारा उत्पन्न व्यसनों में लिप्त होने से राजा के धर्म तथा अर्थ का नाश हो जाता है और क्रोधासन्न व्यसनों में लिप्त होने से राजा स्वयं नष्ट हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
क्यों कि जो राजा काम से उत्पन्न हुए दश दुष्ट व्यसनों में फंसता है वह अर्थ अर्थात् राज्य - धन - आदि और धर्म से रहित हो जाता है । और जो क्रोध से उत्पन्न हुए आठ बुरे व्यसनों में फंसता है वह शरीर से भी रहित हो जाता है । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्योंकि काम से उत्पन्न होने वाले व्यसनों में फंसा हुआ राजा अर्थ, अर्थात् राज्य धनादि, और धर्म से रहित हो जाता है; तथा क्रोध से पैदा होने वाले व्यवसनों में फंसा हुआ अपने शरीर ही से रहित हो जाता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जे राजा काम से उत्पन्न हुए व्यसनों में फँसता है वह अर्थ और धर्म से छूट जाता है। क्रोध से उत्पन्न हुए व्यसनों से अपने आत्मा को ही नष्ट कर बैठता है।
 
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