Manu Smriti
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एवंवृत्तस्य नृपतेः शिलोञ्छेनापि जीवतः ।विस्तीर्यते यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि ।।7/33
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
३२-४२ तक श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - (क) ३०-३१ श्लोकों में कहा गया है कि शासन - व्यवस्था को राजा अकेला नहीं चला सकता है । इसलिये कैसे पुरूषों का सहयोग राजा लेवे, इसका वर्णन ३१वें श्लोक में किया है । और वे सहायक कैसी योग्यता वाले हों, यह वर्णन ७।४३ श्लोक में है । अतः ये श्लोक पूर्वापर प्रसंग से सम्बद्ध हैं । परन्तु इनके मध्य में आये श्लोक (३२-४२तक) उस क्रम को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । (ख) और ३६वें श्लोक में एक नये प्रसंग का ही वर्णन करने की प्रतिज्ञा कही है, जब कि ७।१ में राज - धर्म कहने की प्रतिज्ञा कह चुके हैं । उसी बात को दुबारा दोहराना पुनरूक्ति मात्र है । और ३५वें श्लोक में राजा को बनाने की बात कही है, जब कि यह बात ७।३ में ‘राजानमसृजत्’ कहकर कह दी गई है । और ३२ - ३४ श्लोकों में राजा के व्यवहार को बातें कही हैं, जब कि ये बातें प्रथम कह चुके हैं । और ४०-४२ श्लोकों में राजाओं के इतिहास का वर्णन अप्रासंगिक है । और ७।३७ - ३९ तक राजा की दिनचर्या का वर्णन है, यह भी प्रसंग विरूद्ध और पिष्ट - पेषणमात्र ही है, क्यों कि राजा की दिनचर्या ७।१४५ से प्रारम्भ की है । २. अन्तर्विरोध - और इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं से विरोध है । जैसे - ३९ - ४२ तक श्लोकों में राजा को विनय की शिक्षा और उसका महत्व समझाया है। यह विनय की शिक्षा मनु की मान्यता से विरूद्ध है । क्यों कि मनु ने राजा की आवश्यकता भयाक्रान्त अराजकता से रक्षा के लिये बताई है । और राजा को ७।४-६ श्लोकों में अग्निसूर्यादि को भांति तेजस्वी होने, ७।१७ - १८ श्लोकों में राजा को दण्डरूप होने और ७।१०२ में सजा को ‘नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरूषः’ कहकर सदैव दण्ड का प्रयोग करने में तत्पर कहा है । और बिना तेजस्विता के राज्य - शासन की व्यवस्था चल भी नहीं सकती । अतः राजा के लिये विनय की शिक्षा अनावश्यक ही है । और ७।४० में विनय के अभाव में राजाओं का नाश कहना और विनय - विनम्रता के कारण वन में रहने वालों का राज्य प्राप्त करनादि बातें निरर्थक ही हैं । ३. शैलीगत - विरोध - (क) इन श्लोकों की शैली अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अयुक्तियुक्त होने से मनु की नहीं है । विनय की शिक्षा और उसका महत्व बताना राजा के लिये अयुक्तियुक्त है । राजा का न्यायोचित कार्य विनय से नहीं चल सकता । विनय के अभाव में वंशसहित राजाओं का नाश और विनय से वन्य - पुरूषों का राज्य प्राप्त करना अतिशयोक्ति मात्र है । (ख) ७।४०-४२ श्लोकों में ऐतिहासिक राजाओं के नाम लेकर विनय का महत्व बताया गया है, यह भी मनु की शैली से विरूद्ध है । क्यों कि मनु किसी भी विषय के वर्णन में ऐतिहासिक उदाहरण नहीं देते हैं । (ग) मनु को शैली इस प्रकार की है कि वे एक विषय का वर्णन पूर्ण करके तत्पश्चात् दूसरा विषय प्रारम्भ करते हैं । किन्तु यहाँ (७।३६ में) राजधर्म के पूर्ण हुए बिना ही भृत्यों सहित राजा के कार्यों के वर्णन की बीच में ही प्रारम्भ करना मनु की शैली से विरूद्ध है । (घ) और मनु सृष्टि के प्रारम्भ में सब से प्रथम राजा हुए हैं । वे अपने से बाद में होने वाले वैनादि राजाओं की बात कैसे कह सकते थे ? (ड) और ७।४२ श्लोक में मनु का भी उदाहरण दिया गया है, यह भी मनु की शैली से विरूद्ध है । क्यों कि मनु सदृश आप्त - पुरूष अपना नाम लेकर कहीं कुछ भी नहीं कहते । अतः ये श्लोक परवर्ती होने, प्रसंगविरूद्ध, अन्तर्विरोध, शैलीविरूद्ध और अयुक्तियुक्त होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(शिलो´छेन अपि जीवतः एवं वृत्तस्य नृपतेः यशः) ऐसे राजा का यश चाहे वह कण बीन बीनकर ही क्यों न खाता हो,(लोके विस्तीर्यते) लोक में फैलता है। (तैलबिन्दुः अम्भखि इव) जैसे जल में तेल की बूँद डालने से समस्त जल में फैल जाती है।
 
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