Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता ।काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः । 2/2

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
फलेच्छा से कोई कर्म करना अच्छा नहीं है, क्योंकि उसके फल को भोगने के हेतु जन्म लेना पड़ता है और जो *नित्यकर्म और नैमिक्तिक है, वह आत्मज्ञान प्राप्त करने में सहायक होकर मुक्तिदाता है, परन्तु इस वर्णन से साधारण इच्छा करना वर्जित नहीं है, क्योंकि यह सब वर्णन वेदशास्त्र में लिखित धर्म के विषय में इच्छानुकूल ही है।
टिप्पणी :
* नित्य का पंचमहायज्ञ।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. हि क्यों कि इह इस संसार में कामात्मता अत्यन्त कामात्मता च और अकामता निष्कामता प्रशस्ता न अस्ति श्रेष्ठ नहीं है । वेदाधिगमः च वैदिकः कर्मयोगः वेदार्थज्ञान और वेदोक्त कर्म काम्यः ये सब कामना से ही सिद्ध होते हैं । (स० प्र० दशम समु०) ‘‘अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिए भी श्रेष्ठ नहीं, क्यों कि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी से न हो सकें, इसलिये ।’’ (स० प्र० तृतीय समु०)
टिप्पणी :
वूलरादि पाश्चात्य - विद्वानों तथा टीकाकारों का अन्यथा व्याख्यान १. वूलरादि पाश्चात्य विद्वानों ने १।१२१ से १२४ तक (२।२ से २।५ तक) चार श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है । इस विषय में उनकी युक्ति यह है कि यहां सकामता और निष्कामता का कोई प्रसंग नहीं है । परन्तु उनका यह कथन अविवेकपूर्ण तथा असंगत है । क्यों कि मनु ने धर्म के विषय में वेद को सर्वाधिक प्रमाण माना है और मनु ने उसी का संकेत १।१२० श्लोक में यह कहकर दिया है कि विद्वानों ने जिस वेदोक्त धर्म को हृदय से स्वीकार किया है, उसे जानो । किन्तु वेदोक्त - धर्म को जानने की (१।१२१ में) कामना अवश्यक करनी पड़ेगी, बिना कामना के अथवा संकल्प के (१।१२२ में) यज्ञ, व्रत, यम, नियम आदि सार्वभौम शाश्वत धर्मों की सिद्धि - कदापि नहीं हो सकती । मनुष्य जो भी धर्माचरणादि कोई कर्म करता है, वह (१।१२३) बिना कामना के नहीं होती । उन काम्य व्रत, यम, नियमादि धर्मों में वत्र्तमान रहता हुआ (१।१२४) मनुष्य अमरलोक - मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । वेदोक्त धर्म की ही कामना क्यों की जाये ? इसका उत्तर १।१२५ श्लोक में ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ कहकर दिया गया है । अतः यह समस्त प्रकरण परस्पर शृंखला से सुसम्बद्ध तथा संगत है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(कामात्मता न प्रशस्ता) इच्छाओं का बहुत होना अच्छा नहीं, (न च एव इह अस्ति अकामता) और न सर्वथा इच्छा-शून्य होना ही इच्छा है। (काम्यः हि वेद-अधिगमः, कर्मयोगः च वैदिकः) वेदों का पढ़ना तथा वेद के अनुकूल आचरण करना इच्छा के द्वारा ही होता है। इच्छाओं का लोलुप न हो। परन्तु पत्थर की भाँति इच्छा-शून्य भी न हो। अन्यथा धर्म कैसे करेगा ?
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
कामात्मता प्रशस्त नहीं। परन्तु इस संसार में अकामता भी नहीं है, क्योंकि वेदार्थ-ज्ञान और वैदिक कर्मयोग कामना से ही सिद्ध होते हैं।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS