Manu Smriti
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ततो दुर्गं च राष्ट्रं च लोकं च सचराचरम् ।अन्तरिक्षगतांश्चैव मुनीन्देवांश्च पीडयेत् ।।7/29
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वही दण्ड तो अधर्मी राजा द्वारा दिया जाता है दुर्ग (किला), राष्ट्र (राज्य) चर, अचर, लोक अन्तरिक्ष (अर्थात् ऊपर के लोक) में जो मनुष्य व देवता लोग हैं उनको पीड़ा पहुँचाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (७।२९) श्लोक निम्नलिखित कारणें से प्रक्षिप्त है - १. प्रसंग विरोध - (क) यहाँ पूर्वापर श्लोकों में राजा द्वारा प्रजा को दिये जाने वाले दण्डों का वर्णन है । किन्तु २९वें श्लोक में राजा से असम्बद्ध दण्ड का वर्णन पूर्वापर प्रसंग के विरूद्ध है । (ख) यहाँ पूर्वापर के श्लोकों में परस्पर अत्यन्त सम्बद्धता है । जैसे - २८वें में ‘दण्डो हि सुमहत्तेज’ का सम्बन्ध ३०वें श्लोक के ‘सः असहायेन....... के साथ है । २९वें श्लोक ने उस सम्बद्धता को भंग कर दिया है ।’ २. विषय विरोध - चराचर तथा अन्तरिक्षस्थ प्राणियों पर दण्ड का प्रभाव राजा के अधिकार में नहीं है, यह तो ईश्वरीय व्यवस्था के आधीन है । अतः इस राजधर्म विषय में उसका वर्णन असम्बद्ध है । ३. अन्तर्विरोध - मनु की मान्यता के अनुसार मुनि और देव मनुष्यों के ही भेद हैं, अतः देवादि भी पृथिवी पर रहने वाले हैं । जैसे ३।२१ में ‘दैव विवाह’ वर्णों में ही होता है । ३।८० में देव गृहस्थों के यहाँ भोजन करते हैं । और ६।५ में वानप्रस्थ के लिये मुन्यन्नों का विधान किया है । अतः देव और मुनि मनु के मत में भूमि पर रहने वाले मनुष्य ही हैं । किन्तु २९वें श्लोक में अन्तरिक्ष में रहने वाले मुनि और देवों की मान्यता पौराणिक कल्पना है । और मनु के लेख से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
दण्ड का पालन न होने से दण्ड राजा का नाश करने के पश्चात् दुर्ग (किला), राष्ट्र (राज्य), सचराचर लोक (स्थिर तथा जंगम सम्पत्ति), अन्तरिक्षगत (पक्षी आदि), मनु, देव सब को कष्ट देता है।
 
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