Manu Smriti
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सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते ।।7/22
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जितने जीव हैं सब दण्डनीय हैं। पवित्र मनुष्य दुर्लभ हैं। दण्ड-भय से सारे जीव कार्य करनेकी सामथ्र्य रखते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।२० - २३) चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - यहाँ राजा के द्वारा प्रजा को दिये जाने वाले दण्ड का प्रसंग है । और ७।१९ श्लोक के बाद ७।२४ श्लोक में उसका वर्णन होने से उसकी पूर्णतः संगति उचित है । राजा को दण्ड सोच विचार कर ही देना चाहिये । इस प्रकार दण्ड नीति के प्रसंग में दण्ड के अभाव में होने वाली दुर्दशा का वर्णन करना पूर्वापर संगति के विरूद्ध है । २. अन्तर्विरोध - मनु ने दण्ड की उचित व्यवस्था के अभाव में अथवा अव्यवस्था में जो परिणाम हो सकता है, उसका वर्णन ७।२४ में बहुत ही व्यापक किन्तु संक्षिप्त रूप में कहा है कि - ‘भिद्येरन् सर्वसेतवः’ अर्थात् धर्म की सभी मर्यादायें भंग हो जायेंगी । किन्तु किसी वाममार्गी प्रक्षेपक ने इस अवसर का लाभ उठाकर यहां अपनी मांस पकाने की मान्यता का समावेश (७।२० में) कर ही दिया कि ‘जैसे मछलियों को लोहे की शलाकाओं से बींधकर भूनते हैं ।’ यद्यपि यह उपमा ही दी है, परन्तु मनु सदृश आप्त पुरूष ऐसी उपमा नहीं दे सकता । क्यों कि वे मांस - मद्य को राक्षसों का भोजन मानते हैं, मानवों का नहीं फिर मानव धर्म शास्त्र में ऐसी हीनोपासना भी वे कैसे दे सकते थे ? ३. विषयविरोध - मनुस्मृति एक मानवधर्मशास्त्र है । इसमें मनुष्यों के लिये धर्म - विधान का उल्लेख करना तो उचित है । और राजा को (७।१७ में) मनु ने धर्म का ‘‘प्रतिभूः - जामिन्’’ कहा है । और इस शास्त्र में मानव - धर्म का वर्णन है । किन्तु इसके विरूद्ध ७।१५ में पक्षी, सर्पादि पर भी दण्ड का प्रभाव ही बताना विषय विरूद्ध है । क्यों कि पशुपक्षियों पर ईश्वरीय व्यवस्था तो लागू होती है, मानवीय राजा की नहीं । और पक्षियों व सर्पों पर राजा दण्ड भी लागू नहीं कर सता, अतः ७।२३ में सर्पादि की दण्ड के कारण भोग करने की बात मिथ्या ही है । और ७।२१ में कही बात भी मिथ्या ही है कि राजा के दण्ड देने में सावधान न रहने पर कौआ पुरोडाश को और कुत्ता हवि को खा जायेगा । इसमें राजा क्या व्यवस्था करेगा, यह तो उन मनुष्यों की असावधानी से होता है । अतः ये श्लोक उपर्युक्त कारणों से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
सारा लोक दण्ड ही से जीता जाता है, क्योंकि पवित्र मनुष्य विरला ही होता है। अतः, दण्ड ही के भय से सारा जगत् अपना-अपना भोग भोगने में समर्थ होता है।
 
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