Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (७।८-१२) पांच्च श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - ये श्लोक पूर्वापर प्रसंग को भंग करने से प्रक्षिप्त है । सातवें श्लोक में राजा के विशेष गुणों का वर्णन किया गया है, जैसे - ‘सोऽग्निर्भवति वायुश्च’ इत्यादि । और १३ वें श्लोक में कहा है कि इन विशिष्ट गुणों के कारण राजा जिस धर्म (कानून) का निर्णय करे, उसका कोई उल्लंघन न करे । इस प्रकार ७वें श्लोक के बाद १३वें श्लोक की संगति ठीक लगती है । किन्तु ८-१२ श्लोकों में असंगत और अतिशयोक्तिपूर्ण राजा का वर्णन किया गया है, अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
२. अन्तर्विरोध - इन श्लोकों में मनु की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध है ।
(क) मनु के अनुसार राजा का चयन जन्म - जात पद्धति से न होकर गुणों के आधार पर किया गया है । और ब्राह्मण, क्षत्रियादि वर्णों का आधार भी कर्म है । किन्तु इस (७।८) श्लोक में राजा के लड़के को ही राजा मानकर लिखा है कि बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिये, क्यों कि वह बड़ी दैवी शक्ति है ।
(ख) और मनु ने धर्माधम्र के अनुसार राजा को अधिकार या दण्ड देने का अधिकार दिया है, व्यक्तिगत द्वेषादि के कारण नहीं । किन्तु (७।९) में कहा है कि राजा जिस पर क्रोध करता है, उसके कुल, पशु तथा धन को नष्ट कर देता है । यह दण्ड धर्माधर्मानुसार नहीं, प्रत्युत व्यक्तिगत द्वेष को प्रकट करता है ।
(ग) और राजा को अपराधी व्यक्ति को ही दण्ड देना चाहिये, न कि उसके निरपराध - परिवार को भी । यदि समस्त परिवार भी दोषी हो तो वह भी दण्डनीय है । किन्तु ऐसा न होकर एक व्यक्ति के दोष से पूरे परिवार को दण्डित करना न्याय - विरूद्ध है । और पशुओं का क्या दोष है , जो उनको भी नष्ट करने की बात लिखी है ।
(घ) और मनु की व्यवस्था में चाटुकारिता अथवा अयोग्य व्यक्ति को अधिकार देने की कोई व्यवस्था नहीं है । किन्तु ७।११ में कहा है कि राजा की प्रसन्नता में लक्ष्मी का वास और क्रोध में साक्षात् मृत्यु रहती है । यह मनु की व्यवस्था से विरूद्ध मौलिक बात नहीं है । चाटुकारिता का कार्य वही कर सकता है, जो अपने दोषों को क्षमा कराने के लिये निरर्थक मिथ्या गुण - गान करने में लगा रहता है, धर्मात्मा व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता ।
३. पुनरूक्ति - ७।१० में जो बात कही है कि राजा देश, काल और शक्ति को देखकर कार्य करे, वही बात ७।१६ और ७।१९ में कही है । इन दोनों में ७।१० श्लोक का ही पिष्ट - पेषण किया गया है । क्यों कि पूर्वापर क्रम को भंग करने वाले श्लोकों के मध्य में है । और ‘तस्माद्धर्मम्’ (७।१३) में जो हेतु निर्देश किया है, वह भी राजा के विशिष्ट गुणों (७।६-७ में कहे) का ही निर्देश करता है । अतः इनके बीच के श्लोक असंगत एवं पुनरूक्त होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
राजा के प्रसाद अर्थात् प्रसन्नता में श्री है। पराक्रम में विजय है। क्रोध में मृत्यु है। राजा सब तेजों वाला होता है।