Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
देखने वाले के नेत्रों तथा मन को सूर्य की नाईं तपाता है कोई मनुष्य भूमि पर राजाओं के सम्मुख होकर उनको देख नहीं सकता: क्योंकि उनका तेज सूर्य के समान है।
टिप्पणी :
1-श्लोक 10 में रूप धारण करने से यह तात्पर्य है कि राजा पालन करने के समय इन्द्र व न्याय समय यमराज तथा शिक्षा प्रचार के समय सूर्य आदि का रूप हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. जो सूर्यवत् प्राणी सबके बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने हारा है जिसको पृथिवी में कड़ी दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ नहीं होता ।
(स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ऐसा सूर्यवत् प्रतापी राजा सब की आँखो और मनों को, अर्थात् सब के बाहर और भीतर, अपने तेज से तपाने वाला होता है। अतः संसार में कोई भी उसकी तरफ आँख उठाकर कड़ी द्ष्टि से नहीं देख सकता।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(आदित्य वत) सूर्य के समान (एषाम्) इनके (चक्षूषि च मनंसि च) आँखों और मनों को (तपति) प्रकाशित करता है। (भुवि) देश मे (एनम्) इस राजा का (कः चित् आदि) कोई भी (अभिवीक्षितुं न शक्रोति) सामना नहीं कर सकता।