Manu Smriti
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राजधर्मान्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः ।संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा ।।7/1

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भृगुजी कहते हैं कि अब हम राजाओं के धर्म और उनकी उत्पत्ति को कहते हैं, तथा जिस विधि से राजा लोग अपने जीवन को सफल कर सकते हैं उस विधि को भी वर्णन करते हैं।
टिप्पणी :
1-श्लोक 10 में रूप धारण करने से यह तात्पर्य है कि राजा पालन करने के समय इन्द्र व न्याय समय यमराज तथा शिक्षा प्रचार के समय सूर्य आदि का रूप हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
अब मनु जी महाराज ऋषियों से कहते हैं कि चारो वर्ण और चारों आश्रमों के व्यवहार कथन के पश्चात् (राजधर्मान् प्रवक्ष्यामि) राजधर्मों को, कहेंगे कि जिस प्रकार का राजा होना चाहिए और जैसे उसका संभव - बनना तथा जैसे उसको परमसिद्धि प्राप्त होवे उसको सब प्रकार कहते हैं । (स० प्र० षष्ठ समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
अब मैं राजधर्मों को कहूंगा कि किस प्रकार का राजा होना चाहिये? किस प्रकार से उसका बना रहना संभव है? और किस प्रकार उसे पूर्ण सफलता प्राप्त हो सकती है?
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
धर्म के दस लक्षण यह है:- धृति (धैर्य),क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना),शौच (सफाई), इन्द्रिय ग्रिह, घी (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न करना)।
 
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