Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।९४ - ९६) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
इन श्लोकों की बातें मनु के कहे विधानों से विरूद्ध हैं । जैसे - १. ६।९१ में कहा है कि द्विज इन चारों आश्रमों में रहता हुआ दश लक्षण वाले धर्म का पालन यत्न से करे । किन्तु ६।९४ वें श्लोक में कहा है कि द्विज इस धर्म का पालन करता हुआ संन्यास लेवे । जब सन्यास के धर्म पहले कह दिये और एक प्रसंग पूरा हो गया, फिर उसको यहां निरर्थक प्रारम्भ किया गया है । और जो सामान्य धर्म हैं, उन्हें करता हुआ ही गृहस्थ में जायेगा तथा वान प्रस्थाश्रम में जायेगा, उनका यहां कथन करना निरर्थक ही है । क्यों कि यहां तो विशेष धर्म ही बताने चाहिए । २. और मनु ने ६।३८ में संन्यासी को सर्वस्य त्यागकर घर छोड़ने को कहा है । किन्तु यहां (६।९५ में) ‘पुत्रैश्वर्ये सुखं वसेत्’ कहने से संन्यासी को घर में रहने और मोह - पाश में ग्रस्त होने की बात मनु से विरूद्ध है । जिस मनु ने वान प्रस्थों को भी घर से बाहर वन में रहने तथा ग्राम्यभोजन का भी निषेध किया है कि कहीं मोहासक्त न हो जाये, क्या वह संन्यासी को पुत्र के ऐश्वर्य को भोगने की बात कह सकते हैं ? अतः यह मनु की मान्यता से विरूद्ध कथन मान्य नहीं हो सकता । ३. मनु ने संन्यासी को घर छोड़कर तथा सर्वस्य त्यागकर संन्यास लेने का विधान तो किया है, किन्तु निष्क्रिय बनाने की व्यवस्था नहीं दी है । अन्यथा संन्यासी के लिये ६।६६ इत्यादि श्लोकों में धर्माचरण का निर्देश तथा दशलक्षण वाले धर्म को संन्यासी का धर्म न मानते । परन्तु यहां ६।९५-९६ श्लोकों में संन्यासी को श्रेष्ठ धर्माचरणरूप कर्मों के परित्याग की बात कहना मनु की व्यवस्था के विरूद्ध है । और यह परस्पर विरोधी कथन भी है । क्यों कि इसी श्लोक में ‘संन्यस्य कर्माणि’ तथा ‘स्वकार्यपरमः’ कहा गया है । यदि संन्यासी अपने धर्म रूप कार्यों में लगा रहता है, तो उसको कर्म छोड़ने की बात कहना निरर्थक है । ४. और मनु ने ६।३३ में संन्यास का विधान करके फिर संन्यास के धर्मों का वर्णन किया है, किन्तु ६।९४ में पुनः संन्यास की बात लिखना एक ही लेखक की नहीं हो सकती । अतः मनु विरूद्ध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।