Manu Smriti
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एष धर्मोऽनुशिष्टो वो यतीनां नियतात्मनाम् ।वेदसंन्यासिकानां तु कर्मयोगं निबोधत ।।6/86
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
भृगुजी ऋषियों से कहते हैं कि अब हम चारों प्रकार के सन्यासियों के साधारण धर्म बतला कर कुटीचर (मठावीश) सन्यासी के विशेष धर्म को आप लोगों को बतलाते हैं। चार प्रकार के सन्यासियों के यह नाम हैं, कुटीवर, भावुक, हंस, परमहंस।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।८६) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) यह श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । ६।८५ वें श्लोक से स्पष्ट है कि मनु जी ने संन्यासियों के धर्मों का उपसंहार कर दिया है । और उन धर्मों का फल कथन भी कर दिया कि इस प्रकार संन्यासी धर्माचरण करता हुआ पाप वृत्तियों को नष्ट करके परमब्रह्म को प्राप्त कर लेता है । किन्तु इस श्लोक में संन्यासियों के दो भेद करके कहा है कि अब तक जितेन्द्रिय संन्यासियों के धर्म कहे हैं और अब आगे वेदसंन्यासियों के कर्म कहे जायेगें । मनु ने ऐसे कोई भेद नहीं किये हैं, अन्यथा संन्यासधर्म के प्रारम्भ में ही भेद बताकर वर्णन करते । और इस (६।८६वें) श्लोक से आगे वेद - संन्यासियों के धर्मों का कोई वर्णन ही नहीं है । क्यों कि अग्रिम श्लोकों में तो सभी आश्रमों के विषय में अपेक्षाकृत बातें तथा सामान्य धर्मों का कथन किया गया है । अतः यह श्लोक सर्वथा असंगत एवं मिथ्या है । और यदि मौलिक होता तो वेद - संन्यासियों के कर्मों का वर्णन आगे अवश्य होता । (ख) यह श्लोक मनु की मान्यता से विरूद्ध भी है । मनु जी ने चार आश्रमों को माना है और चारों के लिए वेद - विहित कर्मों का वर्णन किया है । किन्तु यहां वेद - संन्यासियों की पृथक् कल्पना मनु से विरूद्ध है । क्या जो इससे पहले संन्यासियों के धर्मों का वर्णन किया गया है, वे वेद विहित नहीं हैं ? अथवा ‘वेद -संन्यासिक’ का अर्थ यह माना जाये जिन्होंने वेद धर्मों का संन्यास - परित्याग कर दिया है ? कुछ तो दोनों में भेद मानना ही होगा ? और जो वेद - धर्मों को छोड़ देता है, उसे मनु ने संन्यासी तो क्या द्विज भी नहीं माना और २।१६८ के अनुसार शूद्रों की श्रेणी में माना है । क्यों कि मनु ने तो वेद को परमप्रमाण और सभी धर्मों का आधार माना है । अतः वेद संन्यासिकों की कल्पना मनु की मान्यता के विरूद्ध है ।
 
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