Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब संन्यासी सब पदार्थों में अपने भाव से निःस्पृह होता है तभी इस लोक - इस जन्म और मरण पाकर - परलोक और मुक्ति में परमात्मा को प्राप्त होके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थों में निस्पृह, कांक्षारहित और सब बाहर - भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में और मरण पाके निरन्तर सुख को प्राप्त होता है ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जब संन्यासी सब पदार्थों में अपने भाव से निःस्पृह होता है, तब इस जन्म तथा मरणानन्तर मुक्ति में परमात्मा को पाकर निरन्तर१ सुख को प्राप्त होता है।
टिप्पणी :
१. निरन्तर शब्द का इतना ही अर्थ है कि मुक्ति के नियत समय के मध्य में दुःख आकर विघ्न नहीं कर सकता। (सं० वि० संन्यासप्रकरण)
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यदा) जब (भावेन) आत्म-ज्ञान के भाव से (सर्वभावेषु निःस्पृहःभयति) विषय भावों की और उदासीन हो जाता है। (तदा प्रेत्य च इह च शाश्वतं सुखम् अवाप्रोति) तब यहाँ भी और मरने के बाद भी अक्ष्य सुख को पता है।