Manu Smriti
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प्रियेषु स्वेषु सुकृतं अप्रियेषु च दुष्कृतम् ।विसृज्य ध्यानयोगेन ब्रह्माभ्येति सनातनम् ।।6/79
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।७६ - ७९) चार श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ये श्लोक पूर्वापर प्रसंग को भंग करने के कारण प्रक्षिप्त हैं । क्यों कि ६।७५ में ‘असंगैः’ पद से विषयों की आसक्ति से दूर (निःस्पृह) रहने को कहा गया है । और ६।८० में निःस्पृह रहने का फल बताया है कि आसक्ति रहित पुरूष लौकिक सुखों तथा पारलौकिक सुखों को प्राप्त करता है । और ६।८१ में ‘त्यक्त्वा संगान्’ कहकर इस बात का उपसंहार किया गया है । इस प्रकार ६।७५ श्लोक की संगति ६।८० से ठीक लगती है । किन्तु इन श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है अतः ये श्लोक अप्रासंगिक हैं । (ख) इन श्लोकों में शरीर की नश्वरता, जरा, शोक, रोगादि से पीडि़त दशा, मल - मूत्रादि दुर्गन्धों से पूर्ण बताकर घृणाभाव पैदा किया गया है । इसलिए यह शरीर त्याज्य बताया है और इस शरीर के त्याग से ही दुःखों से मुक्ति बताई है । यह बात प्रथम तो प्रंसग से ही असम्बद्ध है । क्यों कि प्रसंग आसक्ति - रहित होकर जीवन यापन का है । और यह मनु की मान्यता से भी विरूद्ध है । मनु केवल शरीर - त्याग से ही दुःखों से मुक्ति नहीं मानते । मनु ने ६।६३ - ६४ श्लोकों में स्पष्ट कहा है कि धर्माचरण से दुखों से मुक्ति होती है, और अधर्माचरण से कर्मानुसार विभिन्न योनियों में आवागमन होता रहता है । और मनु की व्यवस्था के अनुसार धर्माचरण से (६।८०) इस जन्म में भी सुख मिलता है । अतः शरीर को हेय अथवा घृणित वर्णन करना मनु से विरूद्ध है । (ग) और यहां पूर्वापर के श्लोकों में संन्यासी के कत्र्तव्यों का वर्णन किया गया है । उनके मध्य में कत्र्तव्यों की समाप्ति से पूर्व ही शरीर त्यागकर ब्रह्म प्राप्ति की बात अथवा कत्र्तव्यों के फल कथन की बात अयुक्तियुक्त है । कत्र्तव्यों के पूर्ण होने पर तो फल कथन की बात संगत कही जा सकती है । (ड) और मनु की मान्यता है कि (६।२४०) कर्म करने वाला स्वंय ही अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है । परन्तु यहां (६।७९ श्लोक में) उससे विरूद्ध बात कही गई है कि अच्छे कर्मों को प्रियजनों के लिए और दुष्कर्मों को शत्रु जनों के लिए छोड़कर संन्यासी मोक्ष को प्राप्त करे । क्या इस प्रकार कर्मों का आदान - प्रदान जीव कर सकता है ? कर्म - फल तो ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है, जीव स्वंय नहीं ले दे सकता । अतः यह कथन मनु से विरूद्ध है । और जिस संन्यासी के धर्मों में सभी प्राणियों के प्रति समता की भावना रखने को कहा गया है, और राग - द्वेष से पृथक् रहने की बात (६।६० में) कही है उसके लिए प्रियजन अथवा शत्रु जन कौन हो सकते हैं ? अतः यह कथन निरर्थक ही है । (च) इन श्लोकों में नवीन वेदान्त तथा पौराणिक मान्यता होने से भी ये श्लोक परवर्ती सिद्ध होते हैं । इस सृष्टि में मानव योनि ही सर्वश्रेष्ठ और मोक्ष प्राप्ति का साधन है । फि इस शरीर को हेय व घृणित बताकर निष्क्रिय बनाने की मान्यता नवीन वेदान्तियों की है । किन्तु मनु की मान्यता यह नहीं है । उनके शास्त्र का ही नाम धर्मशास्त्र है जिसमें प्रत्येक मानव के धर्मों का वर्णन किया है और धर्माचरण के बिना मुक्ति नहीं मानी । किन्तु यहां (६।७८ में) नदी के तटवर्ती वृक्ष से उपमा देकर शरीर को बिना प्रयोजन त्याग ने की बात शास्त्र के विरूद्ध मान्यता है । और ६।७७ श्लोक में इस शरीर को ‘भूतावासम् - भूतों का डेरा’ कहा गया है । इस सर्वश्रेष्ठ मानव शरीर को भूतों का डेरा बताना निष्क्रिय मनुष्यों का ही काम है, पुरूषार्थियों का नहीं । और भूत क्या है ? यह पौराणिकों के अनुसार एक योनि विशेष है जो मरने के बाद मिलती है । प्रथम जो योनि मरने के बाद मिले, उसे इस वत्र्तमान शरीर में ही मानना परस्पर विरोधी बात है और मनु ने तो मरने के बाद दो ही गति मानी हैं - १. कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जाना, २. परमधाम मोक्ष प्राप्त करना । इसलिये कर्मफलगति मनु ने कहीं भी ‘प्रेत’ अथवा ‘भूत’ योनि में जाना नहीं लिखा । अतः भूतों की बात अयुक्तियुक्त, पौराणिक मिथ्या मान्यता ही है, मनु की नहीं । अतः ये श्लोक पूर्वापर क्रम से असंगत और मनु की मान्यता से विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
 
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