Manu Smriti
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वैश्यशूद्रोपचारं च संकीर्णानां च संभवम् ।आपद्धर्मं च वर्णानां प्रायश्चित्तविधिं तथा । ।1/116
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
वैश्य और शूद्रों का धर्म, वर्णसंकरों की उत्पत्ति संकट के समय में वर्णों का धर्म, प्रायश्चित (पाप से मुक्त होने की विधि)।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
१।१११ से ११८ तक आठ श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं - ये श्लोक पूर्वापर प्रसंग से विरूद्ध हैं । १।११० श्लोक में धर्म का प्रकरण है और १।१२० श्लोक में भी धर्म का वर्णन है । इस धर्मविषय के मध्य में इन प्रक्षिप्त श्लोकों में वर्णित विषय - सूची सर्वथा ही असंगत है । और यह विषयसूची यदि मौलिक होती, तो ग्रन्थ के प्रारम्भ में होनी चाहिये थी अथवा ग्रन्थ के अन्त में । किसी विषय के बीच में विषय - सूची की कोई संगति नहीं है । ये श्लोक मनु की शैली से भी विरूद्ध हैं । मनु प्रत्येक विषय का प्रारम्भ तथा अन्त में निर्देश अवश्य करते हैं, और प्रवचन - शैली में तो यह अत्यावश्यक होता है, परन्तु इन आठ श्लोकों में वण्र्य विषय का संकेत नहीं है । और १।११८ श्लोक में ‘शास्त्रेऽस्मिन् उक्तवान् मनुः’ कहकर तो प्रक्षेप्ता ने इनके प्रक्षिप्त होने का प्रबल प्रमाण ही दे दिया है । मनु का नाम लेकर किसी और ने ही इन्हें बनाया है और ‘शास्त्र’ शब्द का प्रयोग भी मनु का नहीं है । क्यों कि प्रवचन को जब ग्रन्थरूप में संकलित किया गया, तदनन्तर ही ‘शास्त्र’ शब्द का मनुस्मृति के लिए व्यवहार सम्भव हो सकता है , स्वयं मनु द्वारा नहीं । और इन श्लोकों में जो विषय - सूची दिखाई गई है , उसके अनुसार मनुस्मृति में विषयों का वर्णन भी नही है । जैसे - १।११८ श्लोक में कहे कुलधर्म, व पाखण्डियों के धर्मों का कहीं मनुस्मृति में वर्णन ही नहीं है । और जिस विषय को मनु ने ‘कार्यविनिर्णय’ शब्द से कहा है, उसको इस विषय सूची में पृथक् - पृथक् ‘साक्षिप्रश्नविधान’, ‘स्त्रीपुरूषधर्म’, विभावधर्म आदि नामों से उल्लेख किया है और मनुस्मृति में वर्णित अनेक मुख्य विषयों - (प्रथम अध्याय में धर्मोत्पत्ति, १२वें अध्याय में त्रिविध गतियाँ, धर्मनिश्चयविधि आदि) का इस विषयसूची में अभाव ही है । अतः यह विषयसूची असंगत, शैली - विरूद्ध, तथा सर्वथा अपूर्ण है ।
 
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