Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सन्यासी अज्ञानता में जो जीवहिंसा करता है उस पाप से मुक्त होने के अर्थ स्नान करके छः प्राणायाम करने से शुद्ध हो जाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।६८ - ६९) दो श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) इन श्लोकों में मनु की मान्यता का विरोध है । क्यों कि मनु ने ६।७० - ७२ श्लोकों में प्राणायाम करना संन्यासी की दिनचर्या में लिखा है और प्राणायाम का फल भी बताया है कि प्राणायाम करने से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं । किन्तु यहां भूमि पर चलते हुए क्षुद्र प्राणियों की हिंसा से पाप के प्रायश्चित स्वरूप प्राणायाम की व्यवस्था लिखी है प्रथम तो प्राणायाम करने का हिसांकृत पाप के प्रायश्चित से कोई सम्बन्ध ही नहीं है । और प्राणायाम करना यति की दिनचर्या में विधान किया है । अतः प्राणायाम तो यति को करने ही हैं, तो पृथक् से प्राणायाम से प्रायश्चित कैसा ? मनु अयुक्तियुक्त बात कभी नहीं कहते । प्राणायाम का इन्द्रिय - शुद्धि से प्राण निग्रह होने से तो सम्बन्ध है किन्तु पाप - निवृत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है । जैसे मनु ने गृहस्थी के लिए चूल्हे आदि के द्वारा हिंसाकृत पाप के प्रायश्चित स्वरूप पंच्चमहायज्ञों का विधान किया है, क्यों कि पंच्चमहायज्ञों से प्राणियों का उपकार होने से पुण्य होता है । ऐसा कोई सम्बन्ध हिंसाकृत पाप का प्राणायाम से नहीं है । और प्राणायाम के फल (इन्द्रियदोष - शुद्धि) से इस कथन का विरोध होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
(ख) मनु की प्रवचनशैली में अयुक्तियुक्त बातों के लिये कोई स्थान नहीं है । क्यों कि उनकी धर्माधम्र अथवा पाप - पुण्य के विषय में यह स्पष्ट घोषणा है कि - ‘यस्तर्केण अनुसन्धत्ते स धर्मो वेद नेतरः ।’ इसलिये तर्कविरूद्ध बात मनु कदापि नहीं कह सकते । परन्तु यहांँ कहा है कि रात - दिन भूमि पर चलने से जो प्राणियों की हिंसा होती है, अतः प्राणायाम करे । किन्तु भूमि पर चलते समय क्षुद्र जन्तुओं का तो दिन में भी ध्यान रखना अत्यधिक कठिन है, क्यों कि अनेक बार तो शीघ्रता वश मनुष्य इतनी तेजी से चलता है कि वह ध्यान रख ही नहीं सकता । और रात के समय अन्धकार में तो कोई भी ध्यान नहीं रख सकता । और क्षुद्र जन्तुओं की हिंसा का प्राणायाम करने से कोई सम्बन्ध भी नहीं है ।
(ग) और मनु जी ने प्रायश्चित्तों का विधान ११ वें अध्याय में किया है । यदि मनु का आशय भिन्न - भिन्न आश्रमियों के लिये इस प्रकार प्रायश्चित्त कहने का आशय होता तो पृथक् अध्याय बनाने की क्या आवश्यकता थी ? अतः यहां प्रायश्चित्त का वर्णन सर्वथा अयुक्त है ।
(घ) और भूमि पर चलने से जो हिंसा होती है, क्या वह संन्यासी से भिन्न पुरूषों से नहीं होती ? यदि ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थी के लिए इस हिंसाकृत पाप के प्रायश्चित्त का विधान नहीं किया है तो संन्यासी के लिए ही क्यों ? हिसंा का होना तो सब के लिये सामान्य है । एक आश्रमी के लिए प्रायश्चित्त कहना औरों के लिये नहीं, यह मनु की व्यवस्था से संगत नहीं है । क्यों कि मनु ने सर्वसामान्य के लिये दश लक्षण वाले धर्म की भांति विशेष व्यवस्थाओं का भी विधान पृथक् से किया है ।
(ड) और इन श्लोकों में पुनरूक्ति भी है । ६।४६ में संन्यासी के धर्मों में कहा है कि - ‘दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम्’ संन्यासी देखकर पैर रखे । उसी बात को ६।६८ में ‘समीक्ष्य वसुधां चरेत्’ देखकर पृथिवी पर चले, दुबारा कहा गया है ऐसी पुनरूक्ति मनुप्रोक्त नहीं हो सकती । अतः ये दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।