Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
निर्मली फल यद्यपि जल को स्वच्छ करता है परंतु उसके नाममात्र के लेने से जल स्वच्छ नहीं होता, जब उसको घिस कर पानी में डालेंगे तभी जल स्वच्छ होगा। इसी प्रकार केवल (2) वेद ही धारण कर लेना धर्म नहीं है, वरन् उस धर्म पर चलना धर्म कहलाता है।
टिप्पणी :
जो मनुष्य केवल वेदधारी व सभा में नाम लिखाने से अपने को धर्मात्मा मानते हैं वह इस पर ध्यान देवें कि महात्मा मनुजी केवल दिखलावटी चिह्नों को धर्म नहीं बतलाते।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीस के गदले जल में डालने से जल का शोधक होता है तदपि बिना डाले उसके नाम कथन वा श्रवणमात्र से उसका जल शुद्ध नहीं हो सकता ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)
टिप्पणी :
‘‘यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करने वाला है तथापि उसके नाम ग्रहणमात्र से जल शुद्धि नहीं होता किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से उस मनुष्य का जल शुद्ध होता है, वैसे नाम मात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता किन्तु अपने - अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रम धारण सफल होता है, अन्यथा नहीं ।’’
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
क्योंकि, जैसे यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करने वाला है तथापि उसके नाम-ग्रहण मात्र से मनुष्य का जल शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसको पीस कर जल में डालने से ही वह शुद्ध नहीं होता है, वैसे ही संन्यासाश्रम के चिह्नमात्र धारण करने से उस आश्रम की सफलता नहीं होती।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यद्यपि कतकवृक्ष अर्थात् निर्मली का फल (आम्बुप्रसादकम्) जल को शुद्ध करनेद वाला है (तस्य वारि नाम ग्रहणात् एव न प्रसीददति) केवल नाम लेने मात्र से उसका पानी शुद्ध नहीं होता।