Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि किसी आश्रम में रहकर उसकी सांसारिक विधि को कार्य में न लाता हो किन्तु सब जीवों से निज आत्मा तुल्य (समान) व्यवहार करें तो वह दूषित (बुरा) नहीं, क्योंकि सांसारिक
टिप्पणी :
जो मनुष्य केवल वेदधारी व सभा में नाम लिखाने से अपने को धर्मात्मा मानते हैं वह इस पर ध्यान देवें कि महात्मा मनुजी केवल दिखलावटी चिह्नों को धर्म नहीं बतलाते।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यदि संन्यासी को मूर्ख संसारी लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमान भी करें तथापि धर्म ही का आचरण करे ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्याश्रमादि के मनुष्यों को करना उचित है सब प्राणियों में पक्षपात रहित होकर समबुद्धि, रखे, इत्यादि उत्तम काम करने ही के लिये संन्यासाश्रम का विधि है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही धर्म का कारण नहीं है ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो भी जिस किसी आश्रम में वर्तता हुआ पुरूष अर्थात् संन्यासी सब प्राणियों में पक्षपात रहित होकर स्वयं धर्मात्मा और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे । और यह अपने मन में निश्चित जानें कि दण्ड, कमण्डलु और कषायवस्त्र आदि चिन्हधारण धर्म का कारण नहीं है, सब मनुष्यादि प्राणियों के सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
यदि कोई संसार में संन्यासी को निन्दा आदि से दूषित व अपमानित भी करे, तो भी उसे चाहिए कि वह स्वयं धर्मरत होकर जिस किसी आश्रम में तदाश्रमवासियों को धर्मोपदेश करे। एवं, जो सभी मनुष्यों को समभाव से देखता हुआ धर्मोपदेश करता है वही संन्यासी है, दण्ड कमण्डलू आदि बाह्य चिह्न धर्म के कारण नहीं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
दूषितः अपि चरेत् धर्मम्) यदि कोई दोष लगावे तो भी धर्म को न छोडे़ (यत्र तत्र आश्रमे रतः) चाहे किसी आश्रम में क्यों न रहे। (समः सर्वेपु भूतेषु) सब प्राणियों में समदृष्टि रक्खे। (न लिगं धर्मकारणम्) चिन्ह धर्म का कारण नही है। अर्थात् संन्यासी केवल गेरूये कपड़े पहनकर नहीं हो जाता।