Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस समय गृहस्थ के घर में धुआँ न हो, मूसल का शब्द न हो, अग्नि भी प्रज्वलित न हो तथा सब मनुष्य भोजन से निवृत्त हो गये हों, जूठी पत्तलादि घर से बाहर फेंक दी गई हो नित्य उस समय ही सन्यासी भिक्षा-याचन को जावे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।५६) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है -
(क) यह श्लोक मनु की मान्यता के विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । मनु ने गृहस्थी को पंच्चमहायज्ञों के पश्चात् भोजन करने का निर्देश किया है । और ३।९४ में बलिवैश्वदेवयज्ञ के पश्चात् ही भिक्षा देने को लिखा है । और ३।११६ - ११७ श्लोकों में ऐसा विधान किया है कि अतिथि आदि को खिलाकर तत्पश्चात् गृहस्थी भोजन करें । और जो ऐसा नहीं करते वे ३।११८ के अनुसार पाप के भागी होते हैं । किन्तु यहां कहा है कि संन्यासी भिक्षा लेने तब जावे, जब भोजन पकाने वाली अग्नि शान्त हो गयी हो और परिवार के सब लोगों ने भोजन कर लिया हो । यह कथन पूर्वोक्त कथन से विरूद्ध होने से मनु प्रोक्त नहीं हो सकता ।
(ख) यह श्लोक पूर्वापरप्रसंग से भी सम्बद्ध नहीं है । क्यों कि ६।५५ में कहा है कि संन्यासी एक समय भिक्षा मांगे, किन्तु भिक्षा मांगने में आसक्त न हो । और ६।५७ में कहा है कि भिक्षा न मिलने पर दुःखी और भिक्षा मिलने पर प्रसन्न भी न हो, जो आसक्त न होने वाले कथन की व्याख्या के रूप में होने से परस्पर संबद्ध है । किन्तु इनके मध्य में यह श्लोक उस क्रम को भंग करने से असंगत है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(विधूमे) जिस धर में धुआँ बन्द हो गया हो, (सन्नमुसले) मूसल की आवाज न आती हो, (वयडा़ग्रे) आग न जलाती हो, (भुक्तवज्जने) लोगों ने भोजन पा लिया हो, (वृते शरावसंपाते) खाने के बरतन डाल दिये गये हों ऐसे घर में (यतिः) सन्यासी (नित्यं भिक्षा चरेत्) सदा भिक्षा मागे।
तात्पर्य यह है कि सब खा चुकें तो बची बचाई भीख देने में किसी को कष्ट नहीं होता। रोटी बनते ही सन्यासी पहुँच जाय तो बुरा लगने की सम्भावना है।