Manu Smriti
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अलाबुं दारुपात्रं च मृण्मयं वैदलं तथा ।एताणि यतिपात्राणि मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् ।।6/54
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
लौकी, काठ, मिट्टी व बाँस का पात्र अपने पास रक्खें, सन्यासी के केवल उतने ही पात्र हों जो उसके कार्यार्थ अत्यन्तावश्यकीय हैं और उन्हीं को अपने समीप रक्खें ऐसा मनुजी ने कहा है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।५३ - ५४) दोनों श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - (क) ६।५४ में ‘मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्’ पदों से स्पष्ट है कि यह श्लोक मनु से भिन्न किसी दूसरे ने बनाया है । क्यों कि मनु ने अपना नाम लेकर कोई प्रवचन नहीं किया है । अतः यह श्लोक परवर्ती होने से प्रक्षिप्त है । ६।५३ वां श्लोक भी इस से सम्बद्ध होने से स्वतः ही प्रक्षिप्त हो जाता है । (ख) मनु ने संन्यासी के पात्र, दण्ड, वस्त्रादि का वर्णन ६।५२ में कर दिया है । यदि मनु का आशय पात्र की विशद व्याख्या का होता तो वे दण्ड तथा वस्त्र की भी अवश्य व्याख्या करते । दण्ड किस वृक्ष की लकड़ी का हो, वस्त्र कैसा हो सिला हुआ हो अथवा बिना सिला ? इत्यादि प्रश्न दण्ड, वस्त्र के विषय में भी उत्पन्न हो सकते हैं । किन्तु मनु ने पात्रादि का संन्यासी के लिए विधान तो किया, किन्तु उनका स्पष्टीकरण नहीं किया । क्यों कि संन्यासी जिसने अपना सर्वस्व त्याग ही कर दिया है वह इस चक्र में कहां पडेगा कि पात्र कैसा हो, दण्ड व वस्त्र कैसे हों ? वह तो जैसा भी दानादि में उपलब्ध होगा, वैसा ही अपने प्रयोग में लाएगा । सम्भव है मनु जी ने यह विचारकर ही ब्रह्मचारी की तरह दण्डादि का स्पष्टीकरण नहीं किया । (ग) इन श्लोकों से यह भी स्पष्ट होता है कि ये श्लोक उस समय की रचना हैं जब संन्यासियों के प्रति ऐसी भावना बनायी कि - ‘यतीनां कांच्चनं दद्यात्.................. स नरो नरकं व्रजेत्’ अर्थात् संन्यासियों को सुवर्ण देने से दाता नरक में जाता है इसलिए यहां (६।५३ में) संन्यासी के लिए सुवर्ण पात्रों का निषेध किया है किन्तु यह मान्यता मनु से विरूद्ध है । मनु जी ने लिखा है - ‘विविधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत्’ अर्थात् संन्यासियों को नाना प्रकार के रत्न सुवर्णादि देवे इस विषय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं - ‘‘यह बात भी वर्णाश्रमविरोधी सम्प्रदायी और स्वार्थसिन्धु वाले पौराणिकों की कल्पी हुई है । क्यों कि संन्यासियों को धन मिलेगा तो वे हमारा खण्डन बहुत कर सकेंगे और हमारी हानि होगी तथा वे हमारे आधीन न रहेंगे ।’’ (स० प्र० पंच्चमसमु०)
 
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