Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
तपस्वी, ब्राह्मण, पक्षी, कुत्ता, भिक्षुक यह सब जिस घर में हों उस गृह को त्याग दें अर्थात् वहाँ से भिक्षायाचन न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये (६।५० - ५१) दोनों श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । इन श्लोकों में संन्यासी के लिये निषेधात्मक - विधान किया गया, किन्तु भिक्षा के विषय में मनु ने (६।५५ में) कहा है कि भिक्षा कब और किस प्रकार लेवे । और विधि के बाद ही निषेध की संगति उचित होती है । यहां तो संन्यासी के लिए सदाचार की शिक्षाओं का, प्राणियों के साथ सद्व्यवहार का तथा उसकी दिनचर्या का वर्णन है । यद्यपि दैनिकचर्या में भिक्षा भी आ जाती है, किन्तु ६।५५ में भिक्षा का पृथक् विधान कहने से यहां इन श्लोकों से कोई संगति नहीं है । और श्लोकों की वर्णनशैली से भी इनकी संगति नहीं है । जैसे ६।४९ में ‘विचरेदिह’ और ६।५२ में ‘विचरेन्नियतो नित्यम्’ के शब्दों से स्पष्ट है कि यह समान वर्णन होने से क्रम से पठित होने चाहिए । इनके मध्य में ये दोनों श्लोक उस क्रम को भंग कर रहे हैं ।
(ख) और मनु ने संन्यासी के धर्मों में ‘पवित्रोपवितः’ पवित्रता से बढ़ा हुआ पवित्रान्तःकरण वाला (६।४१) सत्यपूतां वदेद्ववाचम् - सत्य से पवित्र वाणी का उपदेश करने (६।४६) ‘न वाचमनृतां वदेत्’ अनृत मिथ्या छल कपट पूर्ण वाणी को न बोलने (६।४८) का उपदेश दिया है । क्या ऐसा सत्योपदेष्टा विद्वान् संन्यासी अपने स्वार्थवश मिथ्याडम्बरों का आश्रय करके भिक्षार्जन कर सकता है ? और मनु ने ६।५५ में संन्यासी के लिए एक समय भिक्षा करने का विधान किया है, फिर ६५० में लिखे आडम्बरों से भिक्षा मांगना कैसे सम्भव है ? क्यों कि इस श्लोक में वर्णित सभी उपाय असत्य कल्पनाओं पर ही आश्रित हैं । ऐसे मिथ्या साधनों को वही व्यक्ति अपना सकता है, जो लोभ, मोहादि दोषों से ग्रस्त होगा, किन्तु संन्यासी के लिए तो मनु ने कहा है कि वह ‘प्राणयात्रिकमात्रः - जीवन यात्रा के लिए ही भिक्षा लेवे’ (६।५७), ‘संगान् परिव्रजेत् - विषयों के संग से सर्वथा पृथक् रहे’ (६।३३) और ‘सर्ववेदसदक्षिणम् - प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के लिए संन्यासी सर्वस्वत्याग कर देता है’ (६।३८) । अतः ऐसा विरक्त संन्यासी भिक्षा के लिए ऐसे मिथ्याडम्बरों का आश्रय कदापि नहीं कर सकता । इस प्रकार के ये श्लोक उस समय के प्रक्षेप हैं कि जब मनु की मान्यताओं का परित्याग करके संन्यास आश्रम में मनुष्य प्रवेश करने लगे और उन्हें भिक्षा के लिए ऐसे साधनों का आश्रय करता देख किसी विद्वान् ने इन श्लोकों की रचना की है ।
(ग) और दैवी उत्पात भूकम्पादि का बताना, आंख के फड़कने आदि का फल बताना, राहु केतु आदि नक्षत्र तारों का शुभाशुभ फल बताना हस्त - रेखादि देखकर भविष्य बताना इत्यादि बातों का सम्बन्ध फलित ज्योतिष से है और यह वेद - विरूद्ध मिथ्या सिद्धान्त है । मनु के समय ऐसी बातों का जन्म ही नहीं हुआ था, क्यों कि फलित ज्योतिष बहुत ही परवर्ती है । अतः इस प्रकार की कल्पनाओं का मिश्रण किसी स्वार्थी नाममात्र के ब्राह्मण ने किया है कि कहीं हमारी आजीविका में कोई बाधा न हो सके ।
(घ) और यदि फलितज्योतिष की बातें मनु के समय में होतीं, तो जैसे मनु ने सभ वर्णों के कर्मों का परिगणन किया है, उनमें अनेक कर्म आजीविका भी हैं, तो मनु इनको भी किसी वर्ण की आजीविका में अवश्य गिनते । अतः फलित विद्या की बातें मनु के समय की कदापि नहीं हैं ।
(ड) और ६।५१ का यह कथन भी असत्य है कि ‘जिस घर में अन्य तपस्वी, ब्राह्मण, पक्षी, कुत्ते, भिक्षुकादि हों वहां से भिक्षा न मांगे ।’ प्रथम तो ऐसा कौन सा घर है कि जहां पक्षी, कुत्ते तथा भिक्षुकादि न जाते हों ? और यह मान्यता मनु की व्यवस्था से विरूद्ध है क्यों कि मनु ने पशु - पक्षियों के भाग तथा अतिथि, भिक्षुकादि के लिए भिक्षा का विधान प्रत्येक गृहस्थी के लिए किया है । यदि पशु - पक्षी भिक्षा में बाधक होते तो मनु की यह व्यवस्था कैसे संगत हो सकती है ? क्यों कि पंच्चमहायज्ञों के वर्णन में इनका पृथक् - पृथक् वर्णन किया गया है । अतः ये दोनों श्लोक असंगत, मनु की मान्यताओं से विरूद्ध, कल्पित तथा परवत्र्ती होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(तापसैः आकीर्णम् आगारं न उपसंव्रजेत्) तपस्वियों से घिरे हुए घर में भिक्षा के लिये न जाय। (ब्राहम्णौः वा) या ब्राहम्णों से,(वयोभिः) पक्षियों से, (यदि वा श्रभिः) या कुत्तों से, (भिक्षुकैःर्वा) या भिखारियों से।