Manu Smriti
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अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः ।आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह ।।6/49

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
आत्मा में प्रीति करता रहे, प्रत्येक वस्तु का अनिच्छुक रहे। माँस भक्षण त्याग दे, केवल अपनी आत्मा ही को सहायक जान कर सुख के अर्थ इस लोक में विचारे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित सर्वथा अपेक्षारहित मांस, मद्य आदि का त्यागी आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचार करे और सबको सत्योपदेश करता रहे । (सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘अपने आत्मा और परमात्मा में स्थिर, अपेक्षारहित, मद्यमांसादिवर्जित होकर, आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर, इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिए सदा विचरता रहे ।’’ (स० प्र० पंच्चम समु०५)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
अपने आत्मा और परमात्मा में निष्ठासम्पन्न होकर स्थित, सर्वथा अपेक्षा रहित, मद्य-मांसादि विषयों का त्यागी, और आत्मा ही के सहाय से सुखार्थी होकर सब को धर्मोपदेश करता हुआ इतस्ततः विचरे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अध्यात्मरतिः आसीनः) आत्म-ज्ञान में लगा रहे (निरपेक्षः) उदासीन रहे, (निरामिषः) विषयों में न फँसे। (आत्मना एव सहायेन सुखार्थी इह विचरेत्) अपनी ही सहायता से इस संसार में आनन्दी होकर विचरे।
 
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