Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि कोई सन्यासी पर क्रोध करे तो सन्यासी उस पर क्रोध न करे, और यदि सन्यासी से बुराई करे तो सन्यासी अपने उत्तम शब्दों द्वारा उसको प्रसन्न करे। पंच ज्ञानेन्द्रिय, व मन तथा बुद्धि इन सातों से जो वस्तु ग्रहण की गई हो उसके विषय में वाणी द्वारा कथन करें, शेष इन्दियों को सम्बन्धित वस्तु के विषय में मूक (चुप) रहें, वरन् ब्रह्मवाणी में वार्तालाप करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश ही करे और मुख के, दो नासिका के, दो आंख के और दो कान के छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को किसी मिथ्या कारण से कभी न बोले ।
(सं० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
जब कहीं उपदेश व संवाद आदि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा उसकी निन्दा करे, तो संन्यासी को उचित है कि आप उस पर क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश ही करे। तथा, एक मुख के, दो नासिका के, दो आँख के और दो कान के, इन सात छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को किसी कारण से कभी मिथ्या न बोले।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
कारणों से मनुष्य झूठ बोलने में प्रवृत्त होता है। ‘सात दरवाजों‘ का अर्थ यह भी हो सकता है कि सत्य एक है। असत्य अनेक है। सात का अर्थ है अनेक। अर्थात् मनुष्य झूठ बोलते समय इधर बहकता है। मानो उसकी वाणी एक विषय को छोडकर नाना विषयों में फैल जाती है।