Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मृत्यु वा जीवन इन दोनों में से किसी की इच्छा न करें। केवल समय का ही ध्यान रखें, जैसे सेवक अपने स्वामी की आज्ञा का ही ध्यान रखता है, क्योंकि जीवन व मृत्यु की इच्छा का राग द्वेष बिना नहीं हो सकती।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
न तो अपने जीवन में आनन्द और न मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
संन्यासी को चाहिए कि वह जीवन और मृत्यु, किसी का अभिनन्दन न करे, अर्थात् किसी से लौ न लगावे, प्रत्युत जैसे भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है, वैसे ही काल व मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(मरणं न अभिनन्देत) मरने मे सुख न माने, (जीवितं न अभिन्नदेत) जीने में भी सुख न माने। (कालं एव प्रतीक्षेत्)समय की प्रतीक्षा करें। (यथा भृतकः निर्देशम्) जैसे किसी का नौकर अपने स्वामी की आज्ञा की प्रतीक्षा में रहता है।