Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मुक्त का लक्षण है कि भिक्षार्थ मिट्टी का पात्र रखें, वृक्ष की जड़ में निवास करें, ऐसे वस्त्र रखें जो किसी कार्य के योग्य न हों, किसी से सहायता की इच्छा न करें तथा सब जीवों को एक समान समझें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।४४) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है ।
(क) यह श्लोक प्रसंगविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । क्यों कि यहां पूर्वापर श्लोकों में संन्यासी के धर्मों का वर्णन चल रहा है । ६।४३ में संन्यासी को मुनिभाव से समाहित होकर रहने के लिए कहा है और इसी बात को प्रकारान्तर से (६।४५ में) कहा है कि संन्यासी सुख और दुःख में समता से रहे । न तो वह सुख मे आनन्दित हो और नहीं दुःख में दुःखी होवे । परन्तु इस प्रकरण के मध्य में इस श्लोक में मुक्त पुरूष का जो लक्षण किया गया है, वह उस क्रम को भंग कर रहा है ।
(ख) जब यहां मुक्त का प्रसंग ही नहीं है, तो यह श्लोक असंबद्ध तो है ही, साथ ही मुक्त के लक्षण की उपयुक्तता भी यहां नहीं है । इसकी उपयोगिता प्रसंग के प्रारम्भ अथवा अन्त में तो उचित हो सकती थी, यहां नहीं । अतः यह श्लोक मौलिक नहीं कहा जा सकता । क्यों कि मनु इस प्रकार का असम्बद्ध वर्णन कहीं नहीं करते ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
एतत् मुक्तस्य लक्षणम्) संन्यासी के यह लक्षण हैः- कपाल अर्थात् ठीकरा, वृक्ष की जड़ रहने के लिये, कुचैलम् अर्थात् मोटे वसत्र, असहायता अर्थात् किसी पर निर्भर न रहना और सबको बराबर समझना।