Manu Smriti
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एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थं असहायवान् ।सिद्धिं एकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते ।।6/42

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
किसी की सहायता की इच्छा न करें, सदैव इकाकी (अकेला) रहें, जो सिद्धि के अर्थ एक ही की सिद्धि होती है इस बात को देखकर किसी को त्याग नहीं करता उनको भी कोई नहीं त्यागता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
यह जानकर कि अकेले की ही मुक्ति होती है मोक्षसिद्धि के लिए किसी के सहारे या आश्रय की इच्छा से रहित होकर सर्वदा एकाकी ही विचरण करे अर्थात् किसी पुत्र - पौत्र, सम्बन्धी, मित्र आदि का आश्रय न ले और न उनका साथ करे, इस प्रकार रहने से न वह किसी को छोड़ता है, न उसे कोई छोड़ता है अर्थात् मृत्यु के समय बिछुड़ने के दुःख की भावना समाप्त हो जाती है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
मोक्ष सिद्धि के लिये (असहायवान्) किसी का आश्रय न तलाश करे,(एकस्य सिद्धिम् संपश्यन्) यह जानकर कि मोक्ष उसको अकेले ही प्राप्त करनी है, (न जहाति न हीयते) ऐसी मनोवृति करने से वह किसी को छोड़ता है, न उसको कोई छोड़ता है। अर्थात् छोड़ने या छूटने का दुःख नहीं होता।
 
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