Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
प्रजापत्य यज्ञ को करने के पश्चात् सब को दक्षिणा देकर तथा अग्नि को अपनी आत्मा में रख ब्राह्मण अपने गृह को परित्याग करें अर्थात् सन्यास धारण करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्रजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा का त्याग किया जाता है आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणात्य संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके ब्राह्मण गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे ।
(सं० वि० संन्यासाश्रम सं०)
टिप्पणी :
‘‘प्रजापति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके उसमें यज्ञादिशिखाचिन्हों को छोड़ आहवनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांच प्राणों में आरोपण करके ब्राह्मण ब्रह्मवित् घर से निकलकर सन्यासीं हो जावे ।’’
(स० प्र० पंच्चम समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु यदि गृहस्थ में ही किसी तरह पूर्ण वैराग्य हो जावे, तो प्रजापति परमेश्वर की प्राप्ति के निमित्त यज्ञ, कि जिसमें यज्ञोपवीत शिखा आदि सब चिह्नों के त्याग दिया जाता है, करके आहवनीय आदि पांच अग्नियों को प्राण अपान व्यान उदान समान, इन पांच प्राणों में आरोपण करके ब्रह्मवित् ब्राह्मण घर से निकल कर संन्यासी हो जावे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
सर्ववेदस दक्षिणां प्राजापत्याम् इष्टिं निरूप्य) सर्वस्व दक्षिणा वाली प्राजापत्य इष्टि को करके (आत्मनि अग्रीन् समारोप्य) अपने आत्मा में अग्नियों को धारण करके (ब्राह्मणः प्रव्रजेत् गृहात्) ब्राह्मण घर छोड़कर सन्यासी होवे।
टिप्पणी :
अर्थात् प्राजापत्य यज्ञ में अपना सब कुछ दक्षिणा में देवे। अब तक अग्नि को वेदो में जलाकर हवन करता था। परन्तु सन्यासाश्रम में अपना आत्मा ही अग्नि-स्वरूप हो जाता है। भौतिक यज्ञ के स्थान में आत्मिक यज्ञ करना होता है। इसलिये भौतिक यज्ञ का निषेध है।