Manu Smriti
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अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् ।अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षं इच्छन्व्रजत्यधः ।।6/37
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वेदाध्ययन न करके धर्म द्वारा पुत्र उत्पन्न न करें तथा यज्ञ का अनुष्ठान न कर मोक्ष की इच्छा करता है वह नरक में जाता है, क्योंकि मनुष्य जन्म केवल वेदाध्ययन कर जीवात्मा की अज्ञानता को दूर करने के निमित्त है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।३७) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है - (क) यह श्लोक मनु की मान्यता के विरूद्ध है । क्यों कि मनु ने ब्राह्मण को ही (६।३८ में) संन्यास का अधिकार दिया है । और मनु के अनुसार ब्राह्मण वह है जो गुण, कर्म, स्वभाव से धर्माचरण करने वाला, वेद, वेदांगों का पठन - पाठन करने वाला हो अथवा ६।४० के अनुसार द्विज को अधिकार दिया है । और द्विज भी वेदादि शास्त्रों का विद्वान् होता है । इसलिए ‘वेदादिशास्त्रों को बिना पढ़े मोक्ष - संन्यासाश्रम में प्रवेश करने वाला पतित हो जाता है’ यह कथन निरर्थक ही है । (ख) और संन्यासाश्रम में प्रवेश की सामान्य विधि (६।३३ - ३४, ३६) यही बतायी है कि वह सभी आश्रमों में क्रमशः प्रवेश करे फिर इस श्लोक की ये बातें निरर्थक ही हैं कि - ‘वेदों को न पढ़ने वाला, पुत्रों की उत्पत्ति न करने वाला और यज्ञ न करने वाला संन्यासाश्रम में प्रवेश करके पतित हो जाता है ।’ और जो ब्रह्मचर्य से अथवा गृहस्थ से ही संन्यासाश्रम में प्रवेश का (६।३८ में) विकल्प कहा है, वह विशेष - अवस्था के लिए ही है । (ग) और जो बातें ६।३६ में कही है - वेद पढ़कर, पुत्रोत्पत्ति करके और यश करके संन्यासाश्रम में प्रवेश की इच्छा करे । ठीक इनके विपरीत बातें ही (६।३७ में) कही हैं । इन बातों का बोध तो मनुष्य अर्थापत्ति से ही कर लेता है । और मनु की शैली से इस प्रकार का वर्णन विरूद्ध है । जैसे मनु ने धर्म के दश लक्षण बतायें हैं, किन्तु अधर्म के नहीं । अतः शैली के विरूद्ध होने से भी यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(द्विजः वेदान् अनधीत्य) ब्राह्मण वेद न पढ़कर, (अनुत्पाद्य तथा सुतान्) सन्तान न उत्पन्न करके और (अनिष्ट्वा च ए यज्ञैः च) यज्ञ न करके (मोक्षम् इच्छन्) जो मोक्ष की इच्छा करता है, (व्रजति अथः) वह अधोगति को प्राप्त होता है।
 
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