Manu Smriti
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अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः ।इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ।।6/36
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बुद्धि से वेद का अध्ययन करके, धर्म से पुत्रोत्पन्न करके अपनी शक्ति के अनुसार यज्ञ करता हुआ मोक्ष में मन की प्रवृत्ति करें अर्थात् चित्तवृत्ति लगावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (६।३५) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है । (क) यह श्लोक प्रसंग विरूद्ध है । इससे पूर्व ६।३४ में आश्रम परम्परा से संन्यास को सामान्य विधि का कथन है और इससे अगले ६।३६ में भी क्रमिक संन्यास की ही चर्चा है इनके मध्य में यह श्लोक उस क्रम को भंग कर रहा है । (ख) और जब संन्यास की सामान्यविधि में आश्रमों से प्रवेश क्रमशः ही है, तो तीन ऋणों से मुक्त स्वंय ही हो जाता है । फिर इस श्लोक में जो ‘तीन ऋणों को न चुकाने वाला संन्यासी पतित हो जाता है’ बात कही है, वह निरर्थक है । और तीन आश्रमों को बिना किए ही संन्यासाश्रम में जाने की बात कहना मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम से सब वेदों को पढ़, गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थाश्रम में सामर्थ्य के अनुसार यज्ञ करके, मोक्ष में, अर्थात् संन्यासाश्रम में, मन को लगावे।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(अधीत्य विधिवत् वेदान्) वेदों को नियमानुसार पढ़कर, (पुत्रान् च धर्मतः उत्पाद्य) धर्मानुकूल सन्तान उत्पन्न करके (इष्ट्वा च शक्तितः यज्ञैः) और यथाशक्ति यज्ञ करके (मनः मोक्षे निवेशयेत्) मन को मोक्ष में लगावे।
 
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